RELIGION & SCIENCE (Hea...

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Saturday, April 14, 2012

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -1


 लेखकः-इंजी. आर.एस. ठाकुर                    
भाग - 1

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार

                              दुनिया में धर्म और विज्ञान को एक दूसरे के विपरीत दो अलग अलग विषय माना जाता है जबकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संसार दो प्रकार का होता है पहला दृश्य संसार जो हमें आखों से दिखाई देता है दूसरा अदृश्य संसार जो हमें आखों से दिखाई नहीं देता, हम दृश्य संसार को भौतिक संसार एवं अदृश्य संसार को मानसिक संसार भी कहते है। भौतिक संसार को सभी व्यक्ति एक जैसा देखते हैं एवं एक समान व्यवहार करते हैं परंतु अदृश्य या मानसिक संसार को प्रत्येक व्यक्ति अलग तरह से देखता एवं अलग व्यवहार करता है। विज्ञान दृश्य संसार का विषय है एवं धर्म अदृश्य संसार का विषय है, चूंकि अदृश्य संसार की प्रतिक्रिया से ही दृश्य संसार प्रगट होता है इसलिए धर्म या आध्यात्म को ही मूल विज्ञान कहा गया है। प्रस्तुत लेख आध्यात्म और विज्ञान को जोड़ने का एक प्रयास है इसमें न तो विज्ञान के किसी सिद्धांत का उलंघन होता है न ही  धर्म के किसी सिद्धांत का उलंघन होता है। विज्ञान को समझे बिना यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि वह धर्म या आध्यात्म का ज्ञाता है तो वह झूठ बोलता है, जब तक कोई व्यक्ति ब्रहृांड एवं मनुष्य की संपूर्ण वैज्ञानिक संरचना एवं क्रिया प्रणाली को नहीं समझता तब तक वह धर्म या आध्यात्म को नहीं समझ सकता। यह लेख भौतिक विज्ञान जीव विज्ञान सापेक्षवाद एवं मनोविज्ञान पर आधारित है। भौतिक एवं जीव विज्ञान दृश्य संसार का विषय है सापेक्षवाद एवं मनोविज्ञान अदृश्य संसार के विषय हैं इसमें चारों के आपसी संबंध एवं क्रियाप्रणाली को दर्शाया गया है। यह लेख वेदमाता गायत्री द्वारा दी गई शिक्षा, स्वयं के अनुभव एवं आत्मज्ञान पर आधारित है। यहां धर्म एवं आध्यात्म का वर्णन आधुनिक भाषा एवं वैज्ञानिक आधार पर किया गया है धार्मिक एवं वैज्ञानिक ग्रन्थों में एक ही चीज के अलग अलग नाम होने के कारण लोग इसे समझ नहीं पाते। इस लेख के प्रथम भाग में धर्म को समझने के लिए आवश्यक वैज्ञानिक तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है एवं दूसरे भाग में योग के माध्यम से ईश्वर तक पहुंचने का सही तरीका बताया गया है। लोग आज धर्म के वास्तविक स्वरूप को भूल चुके हैं धर्म अब अंधविश्वास, व्यवसाय और राजनीति तक ही सीमित रह गया है। यह लेख धर्म के वास्तविक स्वरूप को पुनर्जीवित करने का एक प्रयास है। इस लेख में देवी देवताओं, भूत प्रेत, तंत्र मंत्र एवं अन्य धर्मिक रहस्यों की वैज्ञानिक व्याख्या की गई है। यदि हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझना चाहते हैं तब इस लेख के प्रथम भाग में वर्णित वैज्ञानिक तथ्यों को समझना आवश्यक है इसको समझे बिना कोई भी व्यक्ति धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ सकता इसमें ईश्वर, आत्मा, मन, प्राण आदि सहित मानव शरीर की सूक्ष्म संरचना एवं क्रियाप्रणाली को दर्शाया गया है इसे पढ़कर हम स्वयं के वारे में सब कुछ जान सकते हैं। आध्यात्म एवं धर्म को समझने के लिए इसे जानना अति आवश्यक है। इस लेख में वैज्ञानिक या वेद पुराणों की भाषा का उपयोग नही किया गया है। इसमें सरल एवं सबकी समझ में आने योग्य आधुनिक बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया गया है। इस लेख में किसी भी चीज का पारिभाषिक एवं सैद्धांतिक तौर पर ही उल्लेख किया गया है विस्तार से जानने के लिए यहां दिए गए सिद्धांतों को आधार मानकर प्रमाणिक धार्मिक एवं वैज्ञानिक ग्रन्थों का अध्यन कर सकते हैं।
                  इस लेख में निम्न विषयों की व्याख्या की गई है।

 1. आध्यात्म और विज्ञान
 2. धर्म
 3. ईश्वर
 4. आत्मा
 5. मन
 6. ज्ञान
 7. प्राण
 8. सापेक्षवाद
 9. देवी देवता एवं भूत प्रेत
10. ब्रह्मांड

आध्यात्म और विज्ञान


                     प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है एवं विज्ञान के बिना धर्म अंधा है। आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत पर आज भी खोज जारी है परंतु इनके उपरोक्त कथन पर आज तक कोई विचार नहीं किया गया प्रस्तुत लेख में इनके धर्म एवं विज्ञान से संबंधित कथन को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है। 
                  आध्यात्म विज्ञान एक मूल विज्ञान है जबकि आधुनिक विज्ञान इसका बिगड़ा हुआ स्वरूप है, आध्यात्म विज्ञान पूर्ण ज्ञान है जबकि आधुनिक विज्ञान अधूरा ज्ञान है क्योंकि जब तक किसी कार्य या ज्ञान के माध्यम से हम ईश्वर तक न पहुंचें तब तक ज्ञान अधूरा रहता है तथा अधूरा ज्ञान हमेशा घातक होता है, जिसका परिणाम आज सभी देख रहे हैं। विज्ञान परमाणु को द्रव्य का सूक्ष्मतम कण मानकर अध्यन करता है जबकि आध्यात्म परमाणु को द्रव्य का अंतिम स्थूल कण मानकर अध्यन करता है अर्थात विज्ञान अनंत की ओर चलता है एवं आध्यात्म अंत की ओर चलता है। विज्ञान द्रव्य को अविनाशी मानता है जबकि आध्यात्म के अनुसार द्रव्य का विनाश हो जाता है । ब्रह्माडीय द्रव्य दो रूपों में होता है एक जड़ दूसरा चेतन, विज्ञान जड़ तत्व का अध्यन करता है एवं आध्यात्म चेतन तत्व का अध्यन करता है, चेतन तत्व की प्रतिक्रिया से ही जड़ तत्व की उतपत्ति होती है। विज्ञान का कथन है कि हमारे पूर्वज बानर थे अब हम ज्ञानवान बनकर उन्नति कर रहे हैं जबकि आध्यात्म का कथन है कि हमारे पूर्वज ब्रह्मज्ञानी ऋषि मुनि थे अब हम अज्ञानी बनकर विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। वैसे इस ब्रह्मांड में जिस चीज का जन्म होता है चाहे वह कुछ भी हो हमेशा विनाश अर्थात मृत्यु की ओर ही बढ़ता है यह ब्रह्म सत्य है, अतः आध्यात्म का कथन ही सही प्रतीत होता है। हम अनन्त की ओर चलकर किसी लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते जबकि अंत की ओर चलकर लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। विज्ञान का कथन है कि मनुष्य एक ज्ञानवान प्राणी है परंतु आघ्यात्म का कथन है कि ज्ञान मनुष्य में नहीं द्रव्य (आत्मा) में होता है क्योंकि द्रव्य ने मनुष्य को पैदा किया है न कि मनुष्य ने द्रव्य को, मनुष्य सिर्फ इस ज्ञान को व्यक्त करने का एक माघ्यम मात्र है। विज्ञान का न तो कोई अंतिम लक्ष्य निर्धारित है न ही कोई फल (परिणाम) निर्धारित है, जबकि आध्यात्म का अंतिम लक्ष्य भी निर्धारित है एवं फल भी निर्धारित है। आध्यात्म का लक्ष्य है ईश्वर तक पहुंचना एवं फल मोक्ष है (वैज्ञानिक आधार पर मोक्ष किसे कहते है हम इसी लेख में आगे समझेंगे)। लक्ष्य विहीन विज्ञान का परिणाम यही हो सकता है कि थककर या किसी गढ्ढे में गिरकर विनाश। इसी तथ्य को समझकर हमारे ब्रह्मज्ञानी पूर्वजों ने अंत के रास्ते को चुना क्योंकि अंत के रास्ते पर चलकर मनुष्य ईश्वर तक पहुंचकर मोक्ष प्राप्त कर जन्म मृत्यु के बंधन से छुटकारा प्राप्त कर लेगा, एवं अनंत के रास्ते पर चलकर विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ दुख निवृति कर सुख प्राप्ति का ही प्रयास करता रहेगा। आधुनिक शिक्षा भौतिकवाद एवं पूंजीवाद को बढ़ावा देकर मनुष्य का नैतिक पतन कर उसे विनाश की ओर ले जा रही है, जबकि आध्यात्मिक शिक्षा कैसी भी परिस्थितियों में मनुष्य को सुखमय जीवन जीने की कला सिखाती है। सुख और दुख मनुष्य की मानसिक भावना है यह कोई भौतिक वस्तु नहीं है, यदि दुख को हटा दिया जाय तो सुख ही शेष बचता है आध्यात्म हमें अपने जीवन से दुख को अलग करने की कला सिखाता है जिससे मनुष्य स्वस्थ, सुखी एवं दीर्धायु जीवन व्यतीत कर सकता है, जबकि आधुनिक विज्ञान हमें दुखों को बढ़ाने की कला सिखाता है जिससे मनुष्य तनाव एवं कभी न ठीक होने वाली क्रानिक बीमारियों का शिकार बनता है। आध्यात्म में धन की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है जबकि भौतिकवाद में धन प्रथम आवश्याकता है। आध्यात्म एवं विज्ञान में यही अंतर है।

Scientific basis of spirituality-1


Writer :-
Er.  R S Thakur

The scientific basis of spirituality

(The essence of Indian philosophy)


                        In the world the religion and science are assumed opposite to each other as two different subjects, when both are two sides of the same coin. World is of two types first visible world which can be seen from our eyes & other the invisible world which can not seen from our eyes. The visible world is also known as physical world, and the invisible world known as the mental world. To physical world all  peoples are alike and behave alike but invisible or mental world each person alike differently & behave differently. The science is the subject of visible world & religion is of invisible world, though due to reaction of the invisible word, visible world appears, so religion or spirituality is the main science. It is an effort to add the Spirituality and Science. In this article, there is neither violation of any science principle nor  violation of any religious principle. Without knowledge of science if anybody told that he is expert in spirituality then he is telling lie, because until anybody cannot understand the complete structure & mechanism of human body & universe,  he cannot understand the spirituality.  This article is based on physics, biology, psychology and relativity. Physics and biology are the subjects of visual worlds, psychology and relativity are the subject of the invisible world. Here depicts the relationships and mechanisms between above four subjects. It is based on education given by 'Vedmata Gayatri', own experience and spiritual knowledge. Here religion and spirituality is described in modern language with scientific description, Due to different name of same things in religious and scientific texts books people do not understand them. Now People have forgotten the true nature of religion. Religion superstition, is confined to blind faith, business and politics.  It is an attempt to revive the true nature of religion. In this article the scientific reality of gods, goddess ghosts evil-spirit, demonology-magic and other religious secrets has been described. If we want to know the true nature of religion then it is really important to understand the scientific reality of religion. Here depicts the microscopic structure and mechanism of the human body including god spirit, mind, vital force etc. By read it you can know everything about yourself, it's really important to understand spirituality and religion. Here the language of the science & Vedas, Puranas has not been used. Simple and able to understand for all modern colloquial language is used. Here only technical and theoretical principles are described for details authentic religious and scientific text books can study. 

                       The following topics  has been described here.

 1. Spirituality and Science
 2. Religion
 3. God
 4. Soul
 5. Mind
 6. Knowledge
 7. Life  (vital force)
 8. Relativism
 9. Goddess gods and ghosts evil-spirit etc.
10. Universe


Spirituality and Science

                               The famous scientist Einstein said that Science without religion is lame and religion without science is blind. The Einstein's relativity principle is still continue but statement above has no idea yet. Here is an attempts to authenticate the statement presented by them related to religion and science.
                              The spirituality Science is a basic science, and the modern science is it's impaired form. Spiritual science is the full knowledge while the modern science is incomplete knowledge. Through work or knowledge until someone cannot reach the God the knowledge will be incomplete & incomplete and deficient knowledge is always fatal, the result is in front of the world. The science studied that the atom is the minutest particle of matter, when spirituality studied that the atom is the ultimate physical particle of matter. Science moves towards infinity, and spirituality moves toward the end. Science assumes the matter is indestructible when according to spirituality matter is lost. Universal matter is in two forms, one is root (senseless) elements & second is the conscious elements, science studied the root element, & spirituality studied conscious elements. Due to reaction of the Conscious element the root element appears.                               
                                     Science states that our ancestor were monkey now we are making progress, statement of the spirituality is that our ancestor were the sage men with divine knowledge, now we are moving towards destruction due to foolishness. The birth of everything in the universe is always happens to death that the escalating destruction is the ultimate truth, Therefore, the statement of spirituality appears to be true. We went out to the infinite cannot come to an end if went out to the end can be reach to goal. 
                             The statement of Science is that man is a wise creature spirituality states that wisdom is in matter (soul) not in human The fluid (matter) produced to the man, not man to matter, man is  just a media to express this knowledge. No ultimate goal of science is set no result is determined. While the ultimate goal of spirituality is determined and set  result.The goal of spirituality is to reach the God and the result is salvation  (moksha). What is scientific base of salvation (Moksha), we learn ahead in this article. The result of aimless science may be destruction by fallen into a pit. Considering this fact, our enlightened forefathers chose the path of the end, so man walking on this path can get salvation by reaching the God & will be able to get liberation of the bondage of birth and death, and while walking on the endless paths were born in different species will always attempt to remove the calamity & try to achieve the pleasure. Modern education by encouraging materialism, capitalism & Man's moral collapse has lead him to the destruction. Whatever by the spiritual education man can learn the art of pleasure Living. Calamity & pleasure. are the man's psychological sense  it is not a physical object, if the calamity removed  the pleasure remains balance. Spirituality teach us the art to remove calamity from life so man can spend happy healthy and long life. While modern science  teach us the art to increase the calamity, so men victims the Stress and chronic diseases that are never curable. In Spirituality money is not necessity. While the materialism need the money first. This is the difference between spirituality and science.

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -2


धर्म

                    प्रकृति (ईश्वर) के नियमों का पालन करना धर्म कहलाता है इसका एक ही कानून है कि इस धरती पर पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति सभी कर्म करने के लिए स्वतंत्र है वशर्ते उसके कर्म से किसी भी जड़ या चेतन को कोई आपत्ति न हो, न ही किसी का कोई नुकसान हो, धर्म का यही मूल नियम है, यदि कोई व्यक्ति इसका उलंघन करता है तो उसके लिए ईश्वर द्वारा इस प्रकार की प्रक्रिया बनाई गई है कि मनुष्य प्रकृति के नियम के विपरीत किए गए कर्म के फल स्वरूप ही दुख बीमारी एवं दंड भोगता रहता है। परंतु अज्ञान के कारण वह इसे समझ नहीं पाता कि वह अपने स्वयं के कर्मों का फल भोग रहा है, वह इसका दोष हमेशा ईश्वर, भाग्य या अन्य किसी को देता है, जबकि ईश्वर न तो कभी किसी को दुख देता है न ही सुख देता है। मनुष्य जो भी सुख दुख प्राप्त करता है इसके लिए उसके कर्म ही जबावदार होते हैं। प्रतिक्रिया हेतु कर्म का उद्देश्य प्रमुख होता है क्योंकि एक ही कर्म के अच्छे या बुरे कई उद्देश्य हो सकते हैं। यदि मनुष्य प्रकृति या जीवों का विनाश करता है तब उसका भी विनाश निश्चित है। इस घरती पर पैदा होने वाले मनुष्य सहित प्रत्येक जीव को ईश्वर द्वारा रहने खाने एवं जीने का हक समान रूप से दिया गया है, परंतु आज स्वार्थी लोगों द्वारा मनुष्य सहित अन्य जीवों के इस हक को छीना जा रहा है जिससे आगे चलकर इसके भयानक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।                 
                          इस धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक जीव अपने जीवनकाल में दो ही कार्य करता है एक तो अपने जीवन के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना एवं दूसरा दुख निवृति कर सुख प्राप्ति का प्रयास करना। विज्ञान को तो अभी यह भी मालूम नहीं है कि पृथ्वी पर मनुष्य क्यों पैदा होता है एवं उसके जीवन का लक्ष्य क्या है तथा उसके जीवन की इकाई क्या है। घार्मिक ग्रथों में मनुष्य जीवन के चार लक्ष्य बतलाए गए हैं।
1. घर्म 2. अर्थ 3. कर्म 4. मोक्ष। 
                       उपरोक्त चार लक्ष्य प्राप्ति के लिए चार वेद लिखे गए हैं। गायत्री मंत्र के चार चरण इन चार वेदों का सार है। कलयुग में अब मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य अर्थ अर्थात धन कमाना ( वह भी अनैतिक तरीके से ) ही शेष बचा है, कर्म भी दिशाहीन हो गया है धर्म का स्वरूप बदल चुका है और मोक्ष तो समाप्त ही हो चुका है।
                    संसार में कई धर्म प्रचलित हैं परंतु इन धर्मों में कुछ समानताऐं भी हैं, जैसे सभी धर्म ईश्वर को निराकार मानते हैं इसी कारण किसी भी धर्म में ईश्वर का कोई चित्र या मूर्ति नहीं है। ( निराकार का अर्थ है जिसका कोई आकार न हो जो त्रिविमीय आकाश में कोई जगह न घेरता हो अर्थात जिसका आयतन शून्य हो)। सभी धर्म एक मत से आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं एवं इसे जीवन की इकाई मानते हैं। सभी धर्मों में ईश्वर तक पहुंचने का माध्यम ध्यान होता है, चूंकि शरीर को ध्यान के योग्य बनाने के कई तरीके होते हैं अतः अपने अपने धर्म संस्थापकों द्वारा बतलाए गए तरीकों के आधार पर धर्म यहां से अलग अलग हो जाते है तथा एक ही धर्म में धर्म गुरुओं के आधार पर कई संप्रदाय बन जाते हैं, परंतु सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य होता है ईश्वर तक पहुंचना। धार्मिक ग्रथों में ईश्वर को निराकार निर्विकार निर्लिप्त सर्वव्यापी एवं सर्व शक्तिमान कहा गया है। वर्तमान में धर्म को समझने वाले बहुत कम लोग बचे हैं, अब धर्म अंधविश्वास व्यवसाय एवं राजनीति तक सीमित रह गया है। वैज्ञानिक क्रियाओं को हम भौतिक साधनों द्वारा प्रमाणित कर सकते हैं, देख सकते हैं एवं  दूसरों को भी दिखा सकते हैं। आध्यात्मिक क्रियाओं को हम स्वयं तो प्रमाणित कर सकते हैं परंतु इन्हें हम दूसरों को नहीं दिखा सकते क्योंकि घर्म पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है भौतिक रूप से इसका कोई महत्व नहीं है न ही इस क्षेत्र में किसी की नकल की जा सकती है। आध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए हमें सबसे पहिले मन पर नियंत्रण करना सीखना होता है इसके बिना इस क्षेत्र में कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि धर्म एक मानसिक प्रक्रिया है इसका भौतिक रूप में कोई महत्व नहीं है भौतिक रूप में सिर्फ यज्ञ का महत्व होता है जो पर्यावरण शुद्धि के लिए है। आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य वास्तिविक ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना है। आधुनिक धर्म के ठेकेदारों ने धर्म को भौतिक सुख प्राप्ति का साधन बताकर इसके वास्तविक स्वरूप को बदलकर इसे व्यवसाय, राजनीति एवं साम्प्रदायिकता फैलाने का साधन बना लिया है जिससे मनुष्य अंध विश्वास और लालच में फंसकर अपना कीमती समय और धन बर्बाद करता है, जब कि धर्म का भौतिक सुख सुविधा, अंधविश्वास, चमत्कार आदि से कोई संबंध नहीं है। धर्म स्वस्थ सुखी एवं दीर्धायु जीवन जीने के लिए एक उच्चस्तरीय विज्ञान है। यह धरती मनुष्य की कर्म भूमि है यहां बिना कर्म किए किसी को कुछ नहीं मिलता भगवान और भाग्य के भरोसे कुछ प्राप्त करने की इच्छा रखना मूर्खों का काम है।
तुलसीदास ने कहा है कि:-
       सकल पदारथ है जग मांहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।।
                    गीता में भी श्रीकृष्ण ने कर्म का ही उपदेश दिया है। किसी भी देवी देवता का कृपा पात्र बनने के लिए संसार में आसक्ति को छोड़कर उन देवी देवता तक पहुंचना जरूरी है। धर्म एवं आध्यात्म विज्ञान को समझने के लिए सबसे पहिले ईश्वर को समझना आवश्यक है।

Scientific basis of spirituality-2


Religion

                        Comply the rules of nature (God) is called religion. It has  only one law is there, that each person born on this earth is free to carry his all works  but due to his work neither there should be  any loss of Conscious or insensible elements nor any objection to, This is the basic rule of religion, if any person violates it for that God has make a process that due to nefarious works (unlike the laws of nature) as a result human carry out the calamity disease and penalties. But due to ignorance he cannot understand why he is going through his own deeds. He always gives blame on God, luck or the other. While God never gives calamity or pleasure to anybody. To obtained calamity or pleasure only his deeds (work) are responsible, for reaction the aim of work is important, because for a single deeds many good or bad aims can be. If human disturb nature or wild life, then his destruction is sure. To each creature including human the God has given the right to live equally But today, by selfish people are being cheated to the right of the creatures, including humans, in coming future people can see its terrible consequences.
                                                        Every creature has born on this earth carry out two works first struggle to save his existence & second attempt to derive pleasure by removing calamity. Still Science does not know why man is born on this earth, what is the aim of her life & what is the unit of his life. Four goals of human life have been stated in religious books. 
1. Religion 2. Economy 3 Work 4 Salvation (Moksha)
                                 To achieve these four goals four "Vedas" are written, four stages of the "Gayatri Mantra" is the essence of the four Vedas. In 'kalyug' only purpose of human life is for making money (by unethical manner) is balance, now  work is in inferior direction, the nature of religion has changed, and Salvation (Moksha) has ended.
                               There are many religions in the world but some things are common in these religions. All religions believes that God is abstract (volume less or shapeless), so in any religion no picture or statue of God is there. All religions acknowledge the existence of soul and tretes it as an unit of life. In all religions meditation is media to reach the God. There are several ways to make body fit for meditation, therefore according to different methods stated by each religion founders religions are separated from here.  On the basis of religion teachers in the same religion become so many sects, but all religions have the same objective to reach the God. In religious books God is called abstract, (shapeless) disinterested, ubiquitous and almighty. Currently in the world few people are there who understands religion. Now religion is restricted to superstition, business and politics. To scientific concepts we can verify by physical means and  can show to other peoples, to spiritual actions we can prove himself, but cannot show to others, because religion is a purely mental process, it does not matter (importance) physically and this  cannot copied by others. To enter the field of spirituality it is necessary to learn how we can control our mind, without this nothing can be done in this field. Because religion is a purely mental process, it does not have physical importance. Physically only the value is of sacrifice (Yagy) which is for the environment purity. Main aim of religion is to gain real (actual) knowledge & receive salvation. By modern religion contractors by changing the true nature of religion as a means of achieving physical pleasure has  made an instrument for business, politics and spreading communalism  Due to this man entrapped in blind faith and greed and wastes his precious time and money. There is no connection of the religion with physical pleasure, superstition, miracles, etc. The religion is a high level science to spend pleasurable healthy & long life. This earth is the land of human action, here nobody can gets anything without work, some desire to gets something  from God and luck is the foolishness. 
                                 To understand Religion and spirituality it is necessary   to understand God.

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -3


ईश्वर

                        ईश्वर शब्द से सभी परिचित हैं परंतु बहुत कम लोग ही ईश्वर को समझ पाते हैं। ईश्वर के बारे में आम आदमी की घारणा है कि पूजा अर्चना करने एवं मंदिर आदि में जाकर प्रसाद एवं चढ़ावा चढ़ाने से ईश्वर उन पर प्रसन्न हो जाएगा एवं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर देगा या उन्हें कोई जादू की छड़ी पकड़ा देगा जिससे वे मालामाल हो जाऐंगे, या उनके सब पाप नष्ट हो जाएंगे, परंतु यह बिलकुल ही मूर्खतापूर्ण एवं अंध विश्वास से ग्रस्त धारणा है। ईश्वर न तो कभी किसी से कुछ लेता है न ही कभी किसी को कुछ देता है, लेना देना पूर्णतः मनुष्य के कर्म के उपर निर्भर करता है। कर्म से ही मनुष्य जीवन में सुख दुख का अनुभव करता है, कर्म से ही उसके भविष्य का निर्माण होता है, कर्म से ही उसके वंशानुगत जीन्स का निर्माण होता है एवं कर्म से ही उसके जन्मों का निर्धारण होता है, इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य स्वयं अपने भविष्य का निर्माता होता है। कहा जाता है कि अमुक स्थान या अमुक व्यक्ति के पास जाने से मनुष्य की मनोकामनाऐं पूर्ण हो जाती हैं, यह सिर्फ मनुष्य की श्रद्धा एवं विश्वास पर निर्भर करता है।  जब कोई रोगी किसी डाक्टर के पास इलाज कराने जाता है और यदि डाक्टर को उसका रोग समझ में नहीं आता तब डाक्टर उसे ऐसी दवा दे देता है जिसमें कोई औषधीय गुण नहीं होता परंतु इस दवा को खाकर भी मरीज ठीक हो जाता है, अतः शक्ति मनुष्य के श्रद्धा एवं विश्वास में होती है न कि किसी मूर्ति मंदिर या व्यक्ति विशेष में, मंदिरों को आध्यात्म की प्राथमिक पाठशाला कहा जाता है जहां हम श्रृद्धा एवं विश्वास सीखते हैं।
                        वैज्ञानिक आधार पर ई्श्वर को समझने के लिए हम एक ठोस धातु का टुकड़ा लेते हैं इसे हम जिस स्थान पर रख देते हैं यह उसी स्थान पर रखा रहता है जब तक कि इसे उस स्थान से किसी के द्वारा हटाया न जाए या इसमें जब तक कोई वल न लगाया जाए, अर्थात यह स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अब हम इस टुकड़े को इतना गर्म करें कि यह द्रव रूप में बदल जाए अब यह द्रव रूप धरातल के अनुरूप अपना आकार बदलने में सक्षम हो जाता है अर्थात इसे अब जिस पात्र में रखा जाए यह उसी के अनुरूप अपना आकर बना लेता है। अब हम इस द्रव रूप को इतना गर्म करें कि यह वाष्प रूप में बदल जाए यह वाष्प रूप सारे वायुमंडल में फैलने में सक्षम हो जाता है एवं वायु की गति प्राप्त कर लेता है। इस वाष्प रूप को और गर्म करने पर इसके परमाणु प्रकाशित हो जाते हैं अब यह प्रकाश, उर्जा एवं तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है। ( यहां  यह ध्यान रखने योग्य है कि जलने से परमाणु कभी नष्ट नहीं होता न ही इसकी संरचना बदलती है सिर्फ यह प्रकाश, उर्जा एवं तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है )। अब यह सारे ब्रह्मांड में फैलने में सक्षम हो जाता है एवं प्रकाश की गति अर्थात तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति प्राप्त कर लेता है तथा कोई भी क्रिया करने में सक्षम हो जाता है। यह उर्जारूप अपने चरम बिंदु पर पहुंचकर तरंग रूप में बदल जाता है और अंत में यह तरंग रूप निराकार रूप में बदलता रहता है इस निराकार रूप को हम ईश्वर कहते हैं। धार्मिक ग्रथों में इसे ईश्वर का तत्व रूप कहा गया है, गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि जो व्यक्ति मेरे तत्व रूप को जान लेता है वही मुझ तक पहुंच पाता है।
                  द्रव्य के तरंग रूप से निराकार रूप में बदलने की क्रिया सिर्फ ब्लेक होल (कृष्ण बिवर) बन गए सूर्य के केन्द्र में ही होती है अन्य किसी जगह यह क्रिया संभव नहीं है। ब्लेक होल असीमित घनत्व वाली तरंगों का समूह है यहां सारा सौरमंडल का द्रव्य तरंग रूप में रहता है यही कारण है कि इनको देखा नहीं जा सकता यहां गुरुत्वाकर्षण, घनत्व एवं दवाव इतना अधिक होता है कि यह तरंग रूप द्रव्य शून्य में विलीन होता जाता है या इस प्रकार कह सकते हैं कि इस तरंग रूप द्रव्य को यहां इतना पीस दिया जाता है कि कुछ भी शेष नहीं बचता। ब्लेक होल का जीवन काल अनंत होता है क्योंकि ब्रहृाड से जो भी प्रकाश या तरंगें इन तक पहुंचतीं है उनको ये अपने में समाहित करते जाते हैं यहां से प्रकाश या तरंगें परावर्तित होकर वापस नहीं लौट सकते अतः इनमें तरंगों को निराकार रूप में बदलने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। कालान्तर में यह ब्लेक होल पूरी तरह निराकार (ईश्वर) रूप में बदलकर समाप्त हो जाते हैं अर्थात एक सौर मंडल का अंत हो जाता है या सौर मंडल में स्थित पूरे द्रव्य का विनाश हो जाता है। आध्यात्म की भाषा में इसे द्रव्य का ब्रह्म में लीन हो जाना कहते हैं,। इसी आधार पर पूरा ब्रह्मांड  ईश्वर में लीन हो जाता है। धार्मिक ग्रथों में ब्लेक होल को महाकाल ( अर्थात समय का अंत करने वाला ) कहा गया है। पृथ्वी एवं सौरमंडल का अंत करने वाली शक्ति को शिव कहते है इसके बाद शिव महाकाल का रूप धारण कर ब्रहृांड का अंत करते हैं ब्रहृांड का अंत होने पर समय का भी अंत हो जाता है। मनुष्य भी आघ्यात्म के माघ्यम से ज्ञान प्राप्त कर अपने शरीर में स्थित आत्मा को गुण रहित बनाकर ईश्वर रूप में बदल सकता है। उपरोक्त आधार पर आध्यात्म या किसी भी धर्म एवं विज्ञान के अनुसार ईश्वर एक ही है अलग नहीं अतः आध्यात्म एवं विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं अलग नहीं। चूंकि विज्ञान अभी यह प्रमाणित नहीं कर पाया है कि ब्लेक होल में क्या क्रिया होती है।
                         
           ब्रह्मांड में जो कुछ भी है इस सब को हम  द्रव्य कहते हैं, इस द्रव्य को दो भागों में विभक्त किया गया है। 
1. जड़ 2. चेतन । 
                      चेतन स्वतः क्रिया करने में सक्षम होते हैं जबकि जड़ स्वतः क्रिया नहीं कर सकते इन्हें क्रिया करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती है। जड़ का सबसे छोटा कण परमाणु होता है, एवं चेतन द्रव्य का सबसे छोटा रूप आत्मा होती हैं। जड़ परमाणु के भीतर ही चेतन रूप स्थित होता है एवं अलग से स्वतंत्र अवश्था में भी रह सकता है।
              इसमें जड़  द्रव्य के तीन रूप होते हैं। 
1. ठोस 2. द्रव 3. वायुरूप। 
              चेतन द्रव्य के दो रूप होते हैं।        
1. उर्जा   2. तरंग, 
              इस तरह दोनों को मिलाकर द्रव्य के पांच रूप होते हैं।
1. ठोस 2. द्रव 3. वायुरूप 4. उर्जा 5. तरंग।
           विज्ञान भी द्रव्य के इन पांच रूपों को प्रमाणित कर चुका है। धार्मिक ग्रथों में इन्हें पंच तत्व क्रमशः
1.पृथ्वी 2.जल, 3.वायु, 4.अग्नि एवं 5.आकाश कहते है।
                     पृथ्वी का मतलब ठोस, जल का द्रव, वायु का वायु या गैस रूप, अग्नि का उर्जा एवं आकाश का मतलब कंपन या तरंग होता है। यहां यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि उर्जा सिर्फ अग्नि या अधिक तापमान को ही नहीं कहते है शक्ति एवं प्रकाश भी उर्जा का रूप है इनका तापमान ऋणात्मक भी हो सकता है। चूंकि ठोस एवं द्रव शब्द विदेशी भाषा से आए हैं संस्कृत भाषा  में इन्हें पृथ्वी एवं जल कहा जाता है। ब्रहृांड में जहां ठोस रूप मौजूद है वहां सभी पांच रूप मौजूद होंगे, जहां ठोस नहीं है वहां शेष चार रूप होंगे,  जहां ठोस एवं द्रव नहीं हैं वहां शेष तीन रूप होंगे, जहां ठोस द्रव एवं वायु नहीं हैं वहां शेष दो रूप होंगे, जहां ठोस द्रव वायु एवं उर्जा रूप नहीं हैं वहां सिर्फ एक रूप ही होगा और जहां ये पांचों रूप नहीं हैं वहां सिर्फ ईश्वर होगा। गृह एवं उपगृहों पर द्रव्य पांच या कुछ गृहों पर ठोस को छोड़कर चार रूपों में पाया जाता है, सूर्य एवं तारों में द्रव्य उर्जा एवं तरंग रूप में पाया जाता है, एवं ब्लेकहोल में द्रव्य सिर्फ तरंग रूप में रहता है। ईश्वर सहित द्रव्य का प्रत्येक रूप स्वतंत्र अवश्था में भी रह सकता है। हम एक समय में द्रव्य के एक रूप को ही देख सकते हैं इसके शेष चार रूप इसमें छिपे होते हैं एवं अनुकूल वातावरण मिलने पर प्रगट हो जाते हैं। जब द्रव्य ठोस रूप में होता है तब हम इसके द्रव, वायु, उर्जा एवं तरंग रूप को नहीं देख सकते जब अन्य रूप में होता है तब शेष चार रूप नहीं देख सकते। द्रव्य चाहे किसी भी रूप में रहे एक समय में इसके अंदर सूक्ष्म रूप से पांचों रूप रहते हैं तथा प्रत्येक रूप में उस तत्व के गुण मौजूद रहते हैं, जैसे सोना उपरोक्त पांच रूपों में से किसी भी रूप में रहे प्रत्येक रूप में सोने के गुण मौजूद रहेंगे इसी आधार पर वैज्ञानिक प्रकाश के वर्ण विन्यास से यह पता कर लेते हैं कि प्रकाश किस तत्व से निकल रहा है इसी कारण आगे आने वाली पीड़ी में वंशानुगत गुण मौजूद रहते हैं। निराकार अर्थात ईश्वर रूप में बदलने के बाद द्रव्य के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं ईश्वर किसी भी तत्व के कोई भी गुणों को धारण नहीं करता न ही किसी क्रिया में भाग लेता है। द्रव्य जितने सूक्ष्म रूप में बदलता जाता है उतना ही अधिक शक्तिशाली एवं क्रियाशील होता जाता है द्रव्य का तरंग रूप सबसे अधिक शक्तिशाली एवं क्रियाशील होता है होम्योपैथिक दवाएं इसी सिद्धांत पर काम करतीं है इनमें द्रव्य के तरंग रूप का प्रयोग किया जाता है। तरंग रूप ही सभी भौतिक, रासायनिक, जैविक एवं भावनात्मक क्रियाओं का माध्यम होता है एवं इसका प्रभाव स्थाई होता है। विद्युत तरंगों से सभी परिचित हैं ये हमें दिखाई नहीं देतीं परंतु तार को छूने से पता चल जाता है कि इनमें कितनी शक्ति है, जब तक द्रव्य में तरंग उत्पन्न न हो तब तक किसी भी प्रकार की क्रिया संभव नहीं है।

                   आज विज्ञान ने कुछ स्थूल तरंगों जैसे ध्वनि तरंग, विद्युत चुंबकीय तरंग, प्रकाश एवं विद्युत तरंगों पर नियंत्रण प्राप्त कर दुनिया का नक्शा ही बदल दिया है इन्हीं के कारण आज मनुष्य रेडियो टेलीविजन इंटरनेट टेलीफोन फोटोग्राफी विद्युत जैसी सैकड़ों सुविधाओं  का उपयोग कर बड़े से बड़े कार्य कर लेता है। आध्यात्म में मन एवं आत्मा को सबसे सूक्ष्म तरंग कहा गया है इन पर नियंत्रण प्राप्त कर ब्रहृांड की सभी शक्तियों को प्राप्त किया जा सकता है हमारे पूर्वज मन पर नियंत्रण प्राप्त कर इनका प्रयोग करना जानते थे, धार्मिक ग्रन्थों में ऐसे हजारों उदाहरण मिलते हैं। मन पर नियंत्रण प्राप्त कर उपरोक्त सभी कार्य मात्र तरंग विज्ञान की शक्ति से किए जा सकते हैं जिन्हें करने के लिए विज्ञान को कीमती यंत्रों की आवश्यकता होती है। धार्मिक ग्रंथों में आकाश मार्ग अर्थात तरंगों के माध्यम से यात्रा करने के भी उदाहरण मिलते हैं, विज्ञान भी आने वाले समय में यह तकनीक विकसित कर लेगा। नैनो तकनीक के आने बाद तरंग विज्ञान और विकसित हो जाएगा।
                   उपरोक्त आधार पर ईश्वर को सर्व शक्तिमान माना गया है, क्योंकि यह तरंग से भी सूक्ष्म अर्थात निराकार रूप है। धार्मिक ग्रथों के अनुसार जो मा़त्र इच्छा शक्ति से उत्पत्ति पालन एवं अंत करने में सक्षम है उसे ईश्वर कहते है। अंग्रेजी में ईश्वर को गॉड कहते हैं यहां भी ‘जी‘ का मतलब जनरेशन अर्थात उत्पत्ति ‘ओ‘ का मतलब आपरेशन अर्थात पालन एवं ‘डी‘ का मतलब डिस्ट्राय अर्थात अंत, इस प्रकार जो उत्पत्ति पालन एवं अंत करने में सक्षम है उसे गॉड कहते हैं अतः दोनों भाषाओं में ईश्वर की परिभाषा एक ही है। ईश्वर सर्वव्यापी है क्योंकि यह द्रव्य के प्रत्येक सूक्ष्मतम कण में भी आधार के रूप में उपस्थित रहता है अर्थात ब्रह्मांड में ऐसी कोई जगह नहीं जहां ईश्वर न हो या हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर ही  ब्रह्मांड है एवं ब्रह्मांड ही ईश्वर है। इस धरती पर या आसमान में हम जो कुछ भी देखते हैं वह ईश्वर ही हमें विभिन्न रूपों में दिखाई देता है या ब्रह्मांड में जड़ एवं चेतन के रूप में हम जो कुछ भी देखते हैं इन सब का मूल रूप ईश्वर ही है। यदि हम ईश्वर से श्रृद्धा रखते हैं तब सभी जड़ एवं चेतन को ईश्वर का रूप मानते हुए श्रृद्धा पूर्वक व्यवहार करना होगा। ईश्वर निर्लिप्त एवं निर्विकार है क्योंकि यह किसी भी तत्व के कोई भी गुणों को धारण नहीं करता न ही किसी प्रकार की क्रिया में भाग लेता  है। धार्मिक ग्रन्थों में ईश्वर को द्रव्य का रूप न मानकर द्रव्य को ईश्वर का रूप माना गया है एवं ईश्वर को स्वतंत्र एवं निरपेक्ष माना गया है क्योंकि सब कुछ इसी से उत्पन्न होता है एवं इसी में लीन हो जाता है। गुणों को धारण करने वाली प्रत्येक चीज साकार एवं नश्वर होती है, चाहे वह कितनी ही सूक्ष्म क्यों न हो सिर्फ ईश्वर ही निराकार अमर एवं अजन्मा है। ईश्वर ने संसार की रचना कुछ इस प्रकार की है कि यहां क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती रहती है एवं प्रतिक्रिया से परिणाम प्राप्त होते रहते हैं इसमें ईश्वर को कुछ भी नहीं करना होता वह तो हर जगह द्रष्टा एवं आधार के रूप में उपस्थित रहता है। चूंकि हम सूक्ष्म क्रियाओं को देख नहीं सकते परंतु हम अपने जीवन चक्र से इसे समझ सकते हैं। 
                    प्राणी (सजीव) जगत को हम तीन भागों में बांट सकते हैं पहला प्राणी जगत दूसरा वनस्पिति जगत तीसरा कीट जगत। इसमें वनस्पिति जगत जो त्याग करता है ( फल फूल औषधि आक्सीजन आदि के रूप में) उससे प्राणी जगत एवं कीट जगत का पोषण होता है, प्राणी जगत जो त्याग करता है (मल मूत्र कार्वन डाईआक्साइड आदि) इससे कीट जगत एवं वनस्पिति  जगत का पोषण होता है एवं कीट जगत खाद आदि के रूप में जो त्याग करता है उससे वनस्पिति जगत एवं प्राणी जगत का पोषण होता है। अतः तीनों आपस में एक दूसरे का अस्तित्व बनाए रखते हैं एवं कोई भी चीज कचरा या प्रदूषण के रूप में शेष नहीं रहती। इसी प्रकार जल एवं वायु चक्र भी अपना काम करते रहते है। आज विज्ञान के माध्यम से जिन खनिज तत्वों का उपयोग किया जाता है उनसे निकले अवशेषों को बिना मूल रूप में बदले पृथ्वी जल एवं वायुमंडल में छोड़ दिया जाता है जो कि हमारी पृथ्वी जल एवं वायु को प्रदूषित करते रहते हैं जो कि सभी के अस्तित्व के लिए खतरा है, खनिज तत्वों एवं इनके उत्पादों को जलाने से वायुमंडल प्रदूषित होता है जबकि वनस्पतियों एवं इनके उत्पादों को जलाने से वायुमंडल शुद्ध होता है इसी कारण धार्मिक गंरथों में यज्ञ को आवश्यक एवं महत्वपूर्ण माना गया है। यज्ञ से निकली सूक्ष्म तरंगें वायुमंडल की प्रक्रिया में सुधार कर आवश्यक तत्वों की पूर्ति करतीं है यह तरंगें भी होम्योपैथी के सिद्धांत पर ही काम करती हैं। आज अज्ञान के कारण मनुष्य प्राणियों वनस्पतिओं को अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए नष्ट करता रहता है परंतु वह यह नही समझ पाता है कि इनको नष्ट करके वह अपने अस्तित्व को भी  विनाश की ओर ले जा रहा है।  
                    हम ईश्वर को गणित की संखया शून्य से भी समझ सकते हैं, गणित में शून्य एक ऐसी संखया है जिसके बिना गणित की कल्पना करना संभव नहीं इसमें अकेले शून्य का कोई महत्व नहीं होता परंतु यह किसी संखया के साथ कितनी भी बड़ी संखया का निर्माण कर सकता है। शून्य में चाहे कितने भी शून्य का जोड़ धटाना गुणा भाग कुछ भी किया जाय परिणाम हमेशा शून्य ही आता है इसी प्रकार  निराकार (ईश्वर) में चाहे कितने भी निराकार मिल जाएं यह हमेशा निराकार ही रहेगा। इसी आघार पर सारा ब्रह्मांड निराकार अर्थात शून्य में विलीन हो जाता है एवं सिर्फ एक ईश्वर शेष बच जाता है जिसमें निराकार रूप में पूरा ब्रह्मांड स्थित होता है। यहां एक का मतलब संख्या से नहीं है, जिस प्रकार वायु एक होते हुए सारे वायुमंडल में व्याप्त है इसी प्रकार ईश्वर सारे ब्रह्द्मांड में व्याप्त है। ईश्वर के निराकार अर्थात मूल रूप को कभी देखा नहीं जा सकता न ही किसी ने देखा है न ही  कोई किसी भी साधन द्वारा कभी देख सकेगा क्योंकि वह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है। इसके अलावा किसी भी रूप में ईश्वर के दरशन किए जा सकते  हैं। इस आधार पर यह प्रश्न उठ सकता है कि जब वह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है तब ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता, इसकी व्याखया भी धर्मिक ग्रथों में उपलव्ध है। इस संसार का लगभग चालीस प्रतिशत भाग ही हम देख पाते हैं बाकी साठ प्रतिशत भाग हम नहीं देख सकते। हम द्रव्य के ठोस द्रव  एवं उर्जा रूप को देख सकते है (उर्जा रूप का भी एक भाग प्रकाश या अग्नि को ही देख पाते हैं) परंतु वायु एवं तरंग रूप को  हम नहीं देख सकते इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। इसी प्रकार ईश्वर के मूल रूप को हमारी भौतिक आखों से नहीं देखा जा सकता इसे सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है। ईशावास्योपनिषद् के प्रथम श्लोक में ईश्वर का वर्णन इस प्रकार किया गया है।
              पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
             पूर्णस्य   पूर्णमादाय  पूर्णमेवाशिष्यते।।
अर्थ:- ईश्वर सब प्रकार से सदा सर्वथा परिपूर्ण है, यह जगत भी उस ईश्वर से पूर्ण ही है क्योंकि यह पूर्ण (जगत) उस पूर्ण पुरुसोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार ईश्वर की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह (ईश्वर) पूर्ण है, उस (ईश्वर) पूर्ण में  से इस (जगत) पूर्ण को निकाल देने पर भी वह (ईश्वर) पूर्ण ही बच जाता है।

Scientific basis of spirituality-3


GOD

                                    All peoples are familiar with the word God, but except very few people no one not understands to God. people's common notion about God  is that by praying and offering gifts to God in the temple and that God will be pleased to & will Complete all their wishes will or will hold a magic wand that they will be wealthy Or all their sins will be destroyed But it's totally obsessed notion with the foolishness and blind faith. Neither God takes anything from anyone nor  gives to anyone, give & take is fully depends on  human action,  from work human  experiences  pleasure & calamity in his life, only  work is builds  future. Only by work build his inherited genes & determines the species, so it is said that man is the creator of his own future. It is said that if we reaches to certain religious places or person then all wishes would be completed, it Just depends on man's faith and trust. When a patient is treated by a doctor and the doctor do not understand his disease then doctor gives him a drug, which does not contains any medicinal properties but by eating this drug the patient is cured, so the power is in man's faith and confidence not in the temple statue or individual person. Temples are the primary school of spirituality where we are learn faith and confidence.
                                     For understanding the God on scientific basis we takes a solid piece of metal when we puts it on any place it remains on that  place   until  Unless it is not  removed by any force from that place, and cannot do anything themselves. Now this piece is so hot that this turned into liquid form, now this is able to change its shape according to surface.  now this liquid is competent to change its shape according to pot in where it kept. This fluid do so hot that it turns into vapor, this vapor is capable to spreading in the atmosphere and derives the wind speed. As the vapor more heated, the atom tend to producing light, energy and waves. (It is important to know here that atom is never destroy by burning and not changed its structure, due to heat, atom only seems to produce light, energy and waves.) Now It is capable to spreading in the universe and gets the speed of light, and becomes able to do any action. When this energy form reaches its peak, changed in to waves and finally, these  wave varies as formless & almighty form, it is called God. In the ninth chapter of the Gita Lord Krishna has clearly stated that the person who knows me as my element, only he can reach me. From wave form to change in shapeless form (God) the action is only possible in the center of black holes, this action is not possible any other place. Black hole is a group of unlimited density of waves, here matter of whole solar system is in wave form,  that is the reason they cannot seen. The gravity, density and strain is so high, that the wave disappears in a vacuum. Or we can say this waves form is  here so much crushed, so nothing is left, the life of black hole is etemal from universe whatever waves or light arrives here they   absorb  it. The reflected light or waves cannot return from here, so these waves are always moving the process of change as formless (God). In course of time, the black hole are eliminated completely changed in shapeless form, that is the end of a solar system or the destruction of the whole matter in solar system. in the language of spirituality,  it is said that the matter is dissolve into the God form. Accordingly, the entire universe becomes absorbed in God. In Religious books  black hole is known as Mahakala (ie  the end of time). The power, by which ends the earth and solar system, is called Shiva, then the Shiva in the form of Mahakala, ends of universe. Humans can also altered the soul in our body in abstract form (God) by removing the properties of matter by acquiring knowledge from spirituality. Based on the above description according to science or spirituality, God is same one. Spirituality and science are complement to each other, not so different. Since science could not yet prove this, that what action is continue in the center of black hole.
                                   Whatever is in the universe called matter, this matter is divided into two parts.
1. root 2. conscious 
                                                           Root elements are not competent for automation, they require energy for action whereas Conscious are Competent for automation. Atom is the smallest particle of root element, and soul is the smallest form of conscious element. The conscious element is inside the atom and can also be in independent form.
                    There are three kinds of the root matter
1. Solid 2. Liquid 3. Gas
                           There are two kinds of conscious matter.
1. energy 2. wave
                           Taken together, there are five forms of matter.
1. Solid 2. Liquid 3. Gas 4. Energy 5. Wave.
                            Science has certified these five forms of matter. These five elements respectively in religious books are:-

1. Prathvi 2. Jal 3. Vayu 4. Agni 5. Aakash
(1. Earth 2. Water, 3. Air, 4. Fire  5. Space)

                           Earth, Means the solid, water the liquid, air means gas, fire means energy, space means vibration or wave. The word solid and liquid come from foreign language in 'Sanskrit' language it is called earth and water. In universe, where there is solid form, all five forms would be there, if solid is not there,  the remaining four forms would be there, if  solids and liquids is not there, the remaining  three would be there, if solid-liquid and gas form is not there the remaining two form would be there, if solid, liquid, gas and energy form are not there, the remaining one would be there, and  where  five form are not there,  only God would be there. On planets & minor planets the matter is found in five form, on some planets except solid, is found in four forms. In sun and stars matter is found in wave & energy form, And in Black Hole, matter is found in wave form. Including God, each form of matter can remain in independent condition. We are in a time can see only one form of matter, the remaining four are hidden in it. Matter is in whatever form, at a time in this, the five form are live as  micro form, and the properties of that element will present in every form, if gold, is in any form of above five the  properties of gold will be present in every form. Based on the Spectrum signal processing scientist can know, light coming out of which element. Therefore, hereditary traits are found in future generation. After the change as the almighty (God), All the properties of element are destroyed, neither God does not hold any properties of any element nor participates in any action. When matter changes in more subtle form, becomes more powerful and reactive. The wave form of matter Is the most powerful and active. Homeopathic medicines are work on this principle the wave form is used in these medicines. The wave form is responsible for all the physical, chemical, biological and emotional functions and its effect is permanent. All peoples are aware from electrical waves that we cannot see them But we can experience  the power by touching the wire, until waves are not produced in element any action is not possible.
                                      Today science has changed the look of the world, by got control on some waves, such as sound wave, electromagnetic wave, light and electrical waves due to this, man can do big works by using the so many facilities, such as Radio, Television, Internet, Telephone, Photography, Electrical Power etc.. In spirituality, mind and soul is called the microwave, by controlling this we can get all the powers of universe. Our ancestors knew how to use it, by control of mind, in Religious texts the thousands examples are found. By control of the mind, all above works, can be done by the power of wave science for which science requires expensive equipment, in Religious texts the  instances are found, to travel through waves in space. Science can also develop this technology in coming future. After the arrival of nanotechnology the wave science will be more developed.
                                   According to above, God has been considered almighty because God is more subtle than waves. As per religious text, who is able to origin, abide and end of universe by will power, called God. In English God means 'G' for Generation 'O' for operation 'D' for destroy means origin, abide & end, hence definition of God is same in both the hindi & English language. God is omnipresent, because it is present in each smallest particle of elements as a base. There is no place in the universe, where God is not present, or we can say, the God is the universe and universe is the God. On this earth & in the sky,   whatever we see God is clap eyes on  in different forms. Or in the universe, in root or conscious elements forms, whatever we see, is basically the same God. When we all have almost good faith with God, then all root & conscious element must treat with regard & faith. God is disinterested and without impurity, neither he does not hold any properties of any elements nor participates in any action. In religious texts, God is not considered as form of matter, but matter is considered as a form of God, and God has been considered independent and dispassionate, because all is generated from this, and becomes absorbed in this. Everything contains any properties is true (having shape) & mortal, it is no matter element is how subtle, just God is only formless and unborn. God has created the world like this, that here reaction has been performing against action, & results are produced by reaction God has nothing to do here, he is everywhere present as the watcher and the basis. Since we cannot see subtle actions, but we can understand it by our life cycle.
                                        Life (conscious), world we can divide into three parts insect world, flora & fauna world. Flora world discards (the fruits flower drug oxygen etc) It nourishes the fauna and insect world. Fauna world discords (Feces, urine Carbon dioxide, etc) It nourishes the insect and flora world. Insect discords the manure etc, it nourishes the flora world. So all three are up bares each other's survival, and nothing would not be left as wastage or pollution. Similarly, water and air cycles to keep their job. Through the use of mineral elements by today's science, fundamentally without changing in protoplast leaving on the earth water & air, that are pollute our earth, water and air which is danger for existence of all by burning of mineral elements and their products are contaminated atmosphere, due to Burning of vegetable and their products, atmosphere becomes pure Therefore, the sacrifice (yagy) in religious text is considered necessary and critical. Microwaves coming from sacrifice (yagy), turned out to improve the process of atmosphere,  is meet the requirement of essential elements, these waves work on the principle of Homeopathy. Human to meet their interests is being destroy fauna flora because of ignorance, but he does not understand, by destroying them he is going to self destruction.
                                  We can understand God by mathematics number zero In mathematics, zero is a number, without this it is not possible to imagine  the math. There is no value of alone zero but how big numbers can be build with any number. No matter in mathematics, by plus, minus, multiply, division of zero to zero result always comes zero. Similarly, the combination of  Almighty (God) is no matter, it will remain forever formless. On this basis,  the whole universe is dissolved into the formless God, so only God is left in universe. Shapeless (God) can not be seen  physically, neither never ever have any seen, nor by any means  will ever seen in future, because he is not present physically, except this in any form we can see the God. the question may we arise on this basis that when God is not present physically, Then what is the  need to feel  God. The description of this is  there in religious text books. Nearly forty percent world we can see from our eyes, the remaining sixty percent  we can not see. We of matter solid, liquid, and one part of energy form  light can see, but wind and waves we can not see It can only be felt. Similarly,  we can not see  the God by our physical eyes It can be known only by spiritual knowledge.

             In "Isawasyopanisd' the God has been described like this.

                                      "God  always utterly perfect in every way, The world that God is full of, Because the whole world is derived from that God, Thus, complete with the perfection of God even when He (God) is complete, from (God) in full,  the complete removal of the (world),  God has survived complete".

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -4


आत्मा

                    आत्मा द्रव्य का प्रथम साकार कण है यह ईश्वर के चारों ओर प्रभामंडल के रूप में स्थित होता है हम इसे द्रव्य का सबसे छोटा रूप कह सकते है यह द्रव्य का तरंग रूप होता है। इसका आकार पखिर्तनीय होता है यह द्रव्य के सभी गुणों को घारण कर सकती है एवं छोड़ भी सकती है जब यह गुणों को छोड़ देती है तब निराकार अथवा ईश्वर रूप में बदल जाती है एवं जब गुणों को घारण करती है तब संसार की रचना करती है गुणों को घारण करने एवं छोड़ने के कारण ही इसका आकार बदलता रहता है एक बार निराकार रूप में बदल जाने के बाद इसका पुनर्जन्म नहीं होता, आध्यात्म की भाषा में इसे मोक्ष कहते हैं, परंतु यह काम आत्मा स्वयं नहीं कर सकती इसके लिए यह मन के उपर निर्भर है। आत्मा सिर्फ क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया करती है एवं प्रतिक्रिया से परिणाम प्राप्त होता है। ब्रह्मांड में जड़ या चेतन जो कुछ भी है उन सभी का मूल आधार आत्मा है यह परमाणु के भीतर स्थित छोटे से छोटे कण में भी आधार के रूप मे स्थित रहती है। यदि हम परमाणु को एक पानी से भरा घड़ा मान लें तब आत्मा का आकार इसकी एक बूंद के बराबर होगा परमाणु का आकार इतना छोटा होता है कि एक सुई की नोंक पर हजारों परमाणुओं को रखा जा सकता है परमाणु किसी तत्व का सबसे छोटा कण है जबकि आत्मा द्रव्य का सबसे सूक्ष्म रूप है इससे सूक्ष्म ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है इसके बाद सिर्फ ईश्वर है जो कि निराकार है। आत्मा तब तक अमर रहती है जब तक कि हमारा सौर मंडल है सौरमंडल का अंत होने पर इसका भी अंत हो जाता है। आत्मा जब तक जीवित रहती है तब तक यह हमेशा सौर मंडल में इधर से उधर भटकती ही रहती है अर्थात एक तत्व से दूसरे तत्व में एक प्राणी से दूसरे प्राणी में भटकती ही रहती है एवं हर जगह इसे क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया करनी ही होती है इस प्रकार अनंत काल तक इसे कभी आराम नहीं मिलता है इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ईश्वर ने आत्मा को मोक्ष की सुविधा प्रदान की है जो कि यह मनुष्य के माध्यम से ही प्राप्त कर सकती है। आत्मा की प्रतिक्रिया निश्चित होती है इसमें कोई अपवाद नहीं होते, जैसे हम किसी पत्थर पर चोट मारें तो प्रतिक्रिया स्वरूप पत्थर टूटेगा इसके अलावा और कोई क्रिया नहीं हो सकती  यह द्रव्य के सभी भौतिक, रासायनिक, जैविक एवं भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के लिए जबावदार होती है क्रिया हमेशा बाहरी आवरण से शुरु होती है तभी आत्मा प्रतिक्रिया करती है अर्थात जब कही से पत्थर को चोट मारी जायगी तभी यह टूटेगा अपने आप नहीं, अर्थात आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करती, इसी प्रकार मनुष्य द्वारा किए गए कर्म रहन सहन खानपान एवं उसके विचारों की शरीर में प्रतिक्रिया के आधार पर ही वह अपने जीवन में सुख दुख भोगता एवं अपने भविष्य का निर्माण करता है।
               धार्मिक ग्रंथों में द्रव्य के गुणों को देवी देवता एवं राक्षस कहा गया है सद्गुणों को देवी देवता एवं दुर्गुणों को राक्षस कहा गया है। इनकी संख्या 33 करोड़ बताई गई है यह सभी गुण आत्मा में स्थित होते हैं ये आत्मा में बीज रूप में स्थित होते हैं जिस प्रकार एक छोटे से बीज में विशालकाय वृक्ष स्थित होता है ठीक इसी तरह आत्मा में गुण स्थित होते हैं एवं परिस्थिति के अनुसार उसी प्रकार के गुण क्रियाशील हो जाते हैं। यदि हम किसी वृक्ष के बीज को जमीन में दवाकर उसे खाद पानी आदि देते हैं तो वह उसी प्रकार के वृक्ष के रूप में बढ़ने लगता है ठीक इसी प्रकार मनुष्य अपनी ज्ञानेद्रियों के माध्यम से जो देखता सुनता एवं समझता है वह वैसा ही बनता जाता है मनुष्य जिस प्रकार के कार्य करता है उसी प्रकार के गुणों की वृद्धि उसमें होती जाती है जिस प्रकार कि खाद पानी देने से एक वृक्ष वृद्धि करता रहता है अर्थात किसी भी कार्य में दक्षता प्राप्त करने के लिए निरंतर अभ्यास जरूरी होता है। यदि हम वृक्ष के बीज को जला दें तब फिर चाहे इसको कितना ही खाद पानी दिया जाय यह बीज वृक्ष उतपन्ऩ नहीं कर सकता इसी प्रकार आत्मा में स्थित गुणों को यदि नष्ट कर दिया जाए तो कितना भी साधन उपलब्ध होने पर मनुष्य में उसके उपभोग की इच्छा जागृत नहीं होगी। धर्म या आध्यात्म का यही मूल उद्देश्य है, इन गुणों को कैसे नष्ट किया जाय इसे दूसरे भाग में समझेंगे। जिस प्रकार एक बीज से वृक्ष उतपन्न किया जा सकता है उसी प्रकार आत्मा से जड़ या चेतन किसी को भी उतपन्न किया जा सकता है क्योंकि यह सबका मूल बीज है परंतु इसके लिए सही वैज्ञानिक प्रकिया एवं आवश्यक परिस्थिति पैदा करने का ज्ञान होना आवश्यक है विज्ञान अभी आत्मा को देख भी नहीं सका है नेनो तकनीक के विकसित होने के बाद शायद विज्ञान आत्मा तक पहुंच जाएगा अभी विज्ञान द्वारा क्लोन पद्यति से जीवों को उतपन्न करने का प्रयास किया जा रहा है जिसमें विकृतियां होना संभव है। रामायण महाभारत एवं गीता में अलग अलग विधियों द्वारा मनुष्य को पैदा करने के उदाहरण मिलते हैं राम एवं सीता इसके प्रमुख उदाहरण हैं राम को कृत्रिम विधि द्वारा माता के गर्भाशय से पैदा किया गया था जबकि सीता को माता के गर्भाशय के बाहर ही पैदा किया गया था।

                 आत्मा में तीन गुण प्रमुख हैं पहला उत्पत्ति से संबंधित अर्थात ब्रहृा दूसरा पालन से संबंधित अर्थात विष्णु तीसरा अंत से संबंधित अर्थात शिव यह तीनों गुण आत्मा में हमेशा उपस्थित रहते हैं चाहे वह आत्मा कहीं भी हो, क्योंकि ब्रहृांड में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु इन तीन चरणों से गुजरती है, इनमें प्रत्येक की करोड़ों शाखाऐं होती है। ईश्वर ने सर्वप्रथम आत्मा को ब्रह्मा अर्थात उतपत्ति के गुण सहित उत्पन्न किया फिर ब्रह्मा द्वारा अपनी ऋणात्मक शक्ति जिसे धार्मिक ग्रंथों में सावित्री कहा गया है को उत्पन्न किया इन्हें ब्रह्मा की पुत्री एवं पत्नि के रूप में जाना जाता है, पुत्री इसलिए कहा जाता है क्योंकि ब्रह्मा ने स्वयं इसे उतपन्न किया पत्नि इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके संयोग से ही विष्णु शिव एवं इनकी ऋणात्मक शक्तियां लक्ष्मी एवं पार्वती सहित करोड़ों देवी देवताओं (गुणों) को उत्पन्न कर संसार की रचना की। आदिकाल में हमारे ऋषि मुनियों द्वारा द्रव्य के गुणों को जो नाम दिए एवं शरीर में इनकी क्रियाप्रणाली एवं गुणों की व्याखया के आधार पर जो चित्र बनाए वे प्रायः मनुष्य की आकृति से मिलते जुलते  दिखते हैं इससे  यह समझा जाने लगा कि देवता मनुष्य की आकृति जैसे कोई अदृश्य प्राणी हैं जो हमें दिखाई नहीं देते परंतु यह बिलकुल ही गलत धारणा है। हम इन देवी देवताओं की जो आकृतियां देखते हैं ये हमारे शरीर में इनकी क्रिया प्रणाली एवं गुणों की व्याखया के आधार पर बनाई गई हैं इस प्रकार की आकृति वाला कहीं कोई होता नहीं है न ही इनके माता पिता होते हैं, महर्षि महेश योगी द्वारा इन देवताओं की संपूर्ण वैज्ञानिकव्याख्या की गई है। श्री राम और श्रीकृष्ण को भी हिन्दू धर्म में देवता के रूप में पूजा जाता है परंतु इनका जन्म मनुष्य रूप में हुआ था अतः ये इतिहास पुरुष एवं धर्म संस्थापक हैं जबकि ब्रहृा विष्णु एवं शिव सहित लाखों देवी देवता विशेष गुणों के नाम हैं। जैसा कि पहिले लिखा जा चुका है कि देवता आत्मा में स्थित होते हैं एवं आत्मा हमारे शरीर में स्थित है अतः सभी देवता एवं राक्षस भी हमारे शरीर में ही स्थित हैं। मनुष्य में जैसे भी  देवत्व के या राक्षसी गुण उभरे होते हैं वह उसी प्रकार सज्जनता या दुष्टता का व्यवहार करता है। इसी कारण धार्मिक ग्रंथों में देवी देवताओं की आराधना का विघान है, हम जिस देवता की आराधना करते हैं उस देवता से संबंधित गुणों की वृद्धि हमारे शरीर में होने लगती है परंतु हमें इसकी सही विधि ज्ञात होना आवश्यक है सिर्फ भौतिक रूप से पूजा करने का कोई महत्व नहीं है क्योंकि यह मानसिक प्रक्रिया है। चूंकि प्रत्येक उपासना के साथ पूजन की विधि जुड़ी होती है जिसका उद्देश्य साधना या उपासना के लिए वातावरण को अनुकूल बनाने का होता है इसी प्रकार राक्षसी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए राक्षसों की भी साधना एवं उपासना की जाती है। किसी की भी उपासना के लिए सही विधि एवं उस देवी देवता के गुणों की व्याख्या एवं क्रिया प्रणाली का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा बिना जानकारी के कोई भी उपासना करने से धर्मान्धता या विक्षिप्तावश्था उतपन्न होती है, इसके लिए योग्य गुरु का होना आवश्यक है।
                    आध्यात्म में आत्मा को जीव एवं ज्ञान भी कहा गया है अर्थात  आत्मा सभी जड़ एवं चेतन के जीवन की इकाई है, आध्यात्म की भाषा में जीवन उसे कहते हैं जिसका उतपत्ति एवं अंत होता है ब्रह्मांड में ईश्वर को छोड़कर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसका उतपत्ति या अंत न होता हो अतः ब्रह्मांड में हर जगह जीवन मौजूद है, क्योंकि जीवन की इकाई आत्मा है और वह प्रत्येक छोटे से छोटे कण में भी मौजूद है। विज्ञान शायद चलते फिरते प्राणियों को ही जीवन मानती है जो कि बिलकुल गलत है क्योंकि प्राणी भी द्रव्य के इन छोटे छोटे कणों अर्थात जड़ परमाणुओं से बने हुए हैं मनुष्य को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि द्रव्य ने मनुष्य को पैदा किया है मनुष्य ने द्रव्य को नहीं, ज्ञान द्रव्य अर्थात आत्मा में होता है मनुष्य में नहीं, मनुष्य इस ज्ञान को व्यक्त करने का सिर्फ एक माध्यम मात्र है, आत्मा में स्थित इस ज्ञान को प्राप्त करने का एक निश्चित तरीका होता है जिसका वर्णन दूसरे भाग में करेंगे मनुष्य एवं सौर मंडल का अंत हो जाने पर भी कभी ज्ञान का अंत नहीं होता क्योंकि ज्ञान की उतपत्ति ईश्वर से होती है।
                   आध्यात्म में आत्मा को जीव एवं ज्ञान भी कहते हैं, एवं प्राण के माध्यम से स्वतः क्रिया करने एवं वंश वृद्धि करने वालों को प्राणी कहते हैं इसमें मनुष्य सहित सभी प्राणी जगत कीट जगत शामिल है वनस्पति जगत भी प्राण के माध्यम से ही वंशवृद्धि एवं क्रिया करता है परंतु प्राणी जगत एवं वनस्पति जगत की क्रिया प्रणाली में थोड़ा अन्तर होता है। जड़ वस्तुओं में मन प्राण ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां नहीं होती जबकि प्राणियों में ये चारों चीजें होतीं हैं प्राण द्रव्य का उर्जा रूप है इसकी क्रिया प्रणाली के संबंध में आगे बताऐंगे। चेतन उसे कहते हैं जो स्वयं क्रिया करने में सक्षम होते हैं तथा जड़ स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकते इन्हें क्रिया करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती है। द्रव्य ठोस रूप से उर्जा एवं तरंग रूप में बदलने पर चेतन हो जाता है ये दोनों रूप कोई भी क्रिया करने में सक्षम होते हैं।
                    मनुष्य सहित सभी प्राणियों का शरीर द्रव्य के पांच रूपों ठोस, द्रव, वायु, उर्जा और तरंग से बना होता है जिन्हें धार्मिक ग्रथों में पंच तत्व पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश कहा गया है ये पांचों रूप प्राणियों में अपने निम्नतम एवं उच्चतम स्तर के साथ क्रियाशील अवश्था में मौजूद होते हैं। जड़ पदार्थ ठोस, द्रव या वायु रूप में से किसी एक रूप में ही होते हैं एवं यह रूप एक ही स्तर का होता है एवं निष्क्रिय अवश्था में होता है या हम कह सकते हैं कि इनमें क्रिया की गति बहुत धीमी होती है इनमें सैकड़ों वर्षों बाद कुछ पखिर्तन दिखाई देता है प्रत्येक वस्तु को क्रिया करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती है प्राणियों में स्थित उर्जा को हम प्राण कहते हैं। हमारे शरीर में ईश्वर निराकार रूप है, आत्मा और मन तरंग रूप है, प्राण उर्जा रूप है, आक्सीजन अन्य गैस आदि वायु रूप हैं, रक्त रस जल आदि द्रव रूप हैं, मांस हड्डी आदि ठोस रूप हैं। इस प्रकार हमारा शरीर द्रव्य के पांच रूपों से बना हुआ है और जब तक हमारे शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ये पांचों रूप क्रियाशील बने रहते हैं। 
                   किसी तत्व का परमाणु कई गुणों का समूह होता है यह गुण परमाणु में स्थित हजारों आत्माओं से उत्सर्जित होते हैं इन गुणों को निश्क्रिय एवं क्रियाशील कर एक तत्व के परमाणु को दूसरे तत्व के परमाणु में बिना संलयन एवं विखंडन किए बदला जा सकता है हमारे पूर्वज इस क्रिया प्रणाली को जानते थे। पृथ्वी पर विज्ञान ने अब तक लगभग 101 तत्वों की खोज की है यह सभी तत्व हमारी पृथ्वी एवं वायुमंडल में पाए जाते हैं पृथ्वी के गर्भ में दबे इन तत्वों को पृथ्वी वनस्पतियों के माध्यम से उपर भेजती रहती है जो फल फूल, अन्न, जल, वायु एवं औषधियों के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचते हैं। इन सभी तत्वों के परमाणुओं के मेल से हमारा शरीर बना हुआ है अर्थात हमारे शरीर का एक एक कण इस घरती का अंश है एवं प्राण सूर्य का अंश है, अतः धरती सबकी मूल माता एवं सूर्य सबके मूल पिता हैं। मनुष्य को हमेशा याद रखना चाहिए कि धरती ही हमें भौतिक सुख सुविधा सहित  जीवन जीने के लिए भोजन, हवा, पानी आदि सभी आवश्यक चीजें उपलब्घ कराती है अतः धरती की रक्षा करना मनुष्य का पहला कर्तव्य है। सभी तत्व हमारे शरीर में संतुलित अवश्था में मौजूद होते हैं इन्हें हम हवा पानी व भोजन के माध्यम से प्राप्त करते हैं। शरीर के भीतर ये तत्व पाचन के माध्यम से द्रव, वायु, उर्जा और तरंग रूप में बदलकर हमारे स्वास्थ मन एवं बुद्धि पर प्रभाव डालते हैं इनकी कमी या अधिकता का हमारे स्वास्थ पर तुरंत प्रभाव पड़ता है इनकी कमी या अधिकता से हम बीमार होने लगते हैं बीमार होने पर औषधि के रूप में इन तत्वों को लेकर इनकी कमी या अधिकता को दूर कर हम स्वस्थ हो जाते हैं। प्रत्येक तत्व का शरीर के अलग अलग भाग पर प्रभाव होता है जैसे सोना बुद्धि पर असर करता है इसकी कमी से मनुष्य निराशा या डिप्रेशन का शिकार हो जाता है भय एवं निराशा के कारण यह बीमारी उत्पन्न होती है मनुष्य में सबसे अधिक मृत्यु का भय होता है परंतु जब निराशा बढ़कर मृत्यु भय को गौड़ कर देती है तब मनुष्य आत्महत्या कर लेता है। इस बीमारी का इलाज एलोपेथी आर्युवेद या होम्योपेथी आदि किसी भी पद्यति से किया जाय बीमारी को दूर करने के लिए सोने से निर्मित दवा का ही प्रयोग किया जाएगा। तीनों पद्यति में दवा एक ही होगी परंतु दवा बनाने के तरीके एवं शरीर में इनके द्वारा क्रिया करने के तरीके अलग अलग होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक तत्व हमारे शरीर के विभिन्न भागों पर प्रभाव डालते हैं। शरीर की सामान्य क्रियाप्रणाली में बदलाव आ जाने को हम असाध्य रोग कहते हैं इन्हें दवाओं से ठीक नहीं किया जा सकता, संसार में अत्याधिक आसक्ति, तृष्णा अपनी परस्थिति से संतुष्ट न रहना, राग द्वेष, चिंता, भय आदि असाध्य रोगों के मुखय कारण हैं विज्ञान खान पान एवं जीवन शैली को असाध्य रोगों का प्रमुख कारण मानती है परंतु खान पान एवं जीवन शैली से  कोई खास फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है मनुष्य की विकृत मानसिकता और उसके विचारों से, क्योंकि आधुनिक जीवन शैली एवं शिक्षा पद्यति मनुष्य की मानसिकता को विकृत कर रही है। जो व्यक्ति संसार में जितना अधिक आसक्त होगा वह उतनी ही जल्दी असाध्य रोगों का शिकार हो जाता है फिर भले ही उसका खानपान सात्विक हो एवं व्यक्ति निर्व्यसन हो। जो व्यक्ति संसार मे आसक्त नहीं है उन्हें कोई असाघ्य रोग नही होते फिर भले ही उनका खानपान एवं जीवन शैली सात्विक न हो। (संसार में आसक्ति का मतलब होता है कि, प्रकृति, वनस्पिति, जीव जन्तु, एवं मानवीय संबंधों की अपेक्षा  स्वार्थ, भौतिक सुख सुविधा, धन एवं संपत्ति को ज्यादा महत्व देना।)
                 हमारा शरीर विभिन्न माध्यमों से द्रव्य के पांचों रूप ग्रहण करता है जैसे भोजन के माध्यम से ठोस रूप, पेय एवं जल के माध्यम से द्रव रूप, श्वांस के माध्यम से वायु रूप, सूर्य के माध्यम से उर्जारूप एवं ज्ञान के माध्यम से तरंग रूप को ग्रहण करता है। इसमे ज्ञान अर्थात तरंग रूप सबसे महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यही मनुष्य के जीवन पर स्थाई प्रभाव डालता है वह जैसा ज्ञान प्राप्त करता है वैसा ही बनता जाता है। प्रथम चार रूपों को ग्रहण करने के लिए हमारे शरीर में तीन ही अवयय होते हैं अर्थात मुंह, नाक एवं त्वचा परंतु तरंग रूप अर्थात ज्ञान को ग्रहण करने के लिए हमारे शरीर में पांच अवयय होते हैं जिन्हें हम ज्ञानेद्रियां कहते हैं।
                   ईश्वर द्वारा 33 करोड़ गुणों को 84 लाख योनियों में विभक्त किया गया है जिसके अनुसार एक गुणसूत्र से लेकर संपूर्ण अर्थात 33 करोड़ गुणसूत्र तक के प्राणी उत्पन्न किए हैं। ( पहली योनि में एक गुणसूत्र होगा एवं दूसरी योनि में तीन गुण सूत्र होंगे अर्थात दूसरी योनि के दो गुणसूत्र एवं पहली योनि का एक, इसी प्रकार तीसरी योनि में  छः गुण सूत्र होंगें अर्थात तीसरी योनि के स्वयं के तीन एवं पिछली योनियों के तीन ) इस तरह 33 करोड़ गुणसूत्र को चौरासी लाख योनियों में बांटा गया है। मनुष्य संपूर्ण गुणसूत्र वाला प्राणी है इसकी उतपत्ति सबसे अंत में हुई। प्रत्येक प्राणी की निकटतम प्रजाति होती है मनुष्य की निकटतम प्रजाति बानर है परंतु बानर कभी विकास करके मनुष्य नहीं बन सकता क्योंकि जो प्राणी जितने गुणसूत्र वाला है वह उतने ही गुणसूत्र वाली संतान उतपन्न कर सकता है कम या अधिक गुण सूत्र वाली नहीं हम यह अवश्य कह सकते हैं कि बानर के बाद पृथ्वी पर मनुष्य की उतपत्ति हुई अर्थात मनुष्य की उतपत्ति सबसे अंत में हुई। मनुष्य के अलावा ईश्वर के द्वारा उतपन्न किए गए सभी प्राणी ईश्वर द्वारा निश्चित कर्म ही कर सकते हैं जबकि मनुष्य सभी कर्म करने हेतु स्वतंत्र है। मनुष्य को छोड़कर सभी प्राणियों की योनि कर्म प्रधान होती है जबकि मनुष्य की योनि ज्ञान प्रधान होती है। प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने के लिए ईश्वर द्वारा मनुष्य को छोड़कर सभी प्राणियों को निश्चित कर्म सौंपे गए हैं एवं ज्ञान के माध्यम से इन सबकी रक्षा करना मनुष्य का कार्य है।
                  पृथ्वी के केन्द्र से सूर्य के केन्द्र तक की दूरी को चौदह भागों में बांटा गया है इन्हें लोक कहते हैं इनमें तीन लोक प्रमुख हैं। 
1. मृत्यु लोक 2. स्वर्ग लोक 3. नर्क। 
                  पृथ्वी की सतह से जहां तक आक्सीजन है उतनी दूरी  को मृत्यु लोक कहते हैं इसके बाद सूर्य के केन्द्र तक की दूरी को स्वर्ग लोक कहते हैं इसके बीच में भी पितृ लोक जन लोक तप लोक मह लोक आदि होते हैं, पृथ्वी की सतह से पृथ्वी के भीतर केन्द्र तक की दूरी को नर्क कहते हैं इनके भी कई स्तर होते हैं।
                  धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार हमारे शरीर में आत्मा का आयतन शरीर की तुलना में अंगूंठे के बरावर होता है (यदि शरीर में स्थित सभी आत्माओं को एकत्रित किया जाय तब इनका आयतन शरीर की तुलना में अंगूठे के बरावर होगा) आत्मा  प्रत्येक सूक्ष्मतम कण के केन्द्र में आधार के रूप में उपस्थित रहती है अर्थात यह हमारे पूरे शरीर में व्याप्त है, यह शरीर के बाहर भी कुछ दूरी तक प्रभामंडल के रूप में रहती है । मृत्यु के समय प्राण के साथ कुछ स्वतंत्र आत्माऐं शरीर से बाहर निकल जाती हैं ये आत्माऐं ही कहीं अन्य जन्म लेती हैं। मृत शरीर में भी आत्मा होती है परंतु यह उसी प्रकार रहती है  जिस प्रकार कि एक जड़ पदार्थ में। समान गुण वाली आत्माऐं हमेशा समूह में रहती हैं। मृत्यु के समय जो आत्माएं शरीर से बाहर जातीं हैं यह कहां जाऐंगी इस बात पर निर्भर करता है कि उनका घनत्व (भार) कितना कम या अधिक है, कम घनत्व वाली आत्माऐं हमेशा उपर (स्वर्ग) की ओर जातीं हैं एवं अधिक घनत्व वाली आत्माऐं हमेशा नीचे (नर्क) की ओर जातीं है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि हल्की गैस उपर की ओर जाती है एवं भारी गैस नीचे की ओर। मनुष्य के शरीर में आत्मा का घनत्व कम या ज्यादा होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपने जीवन में संसार में कितना अधिक आसक्त रहा एवं कितनी इच्छाओं को लेकर उसकी मृत्यु हुई। मृत्युलोक में भटकने वाली आत्माऐं ही दूसरा जन्म लेतीं हैं इसके उपर या नीचे रहने वाली आत्माऐं तब तक दूसरा जन्म नहीं ले सकती जब तक कि वह अपने घनत्व को कम या अधिक कर मृत्यु लोक में न आ जाएं। मृत्यु लोक में रहने वाली आत्माएं किस योनि में जाएंगी यह मनुष्य जीवन में किए गए कर्म के उपर निर्भर करता है। 
                    यहां यह प्रश्न उठ सकता है कि जब आत्मा प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म कण में स्थित है इस प्रकार मुत्यु लोक या अन्य किसी भी जगह इसकी कोई कमी नहीं है फिर प्राणियों की आत्माएं ही क्यों जन्म लेतीं हैं कोई अन्य आत्मा क्यों नहीं। चूंकि मुत्यु के समय प्राणियों के शरीर से बाहर जाने वाली आत्माएं ही स्वतंत्र अवश्था में विचरण करतीं हैं, बाकी आत्माएं द्रव्य के किसी न किसी तत्व के परमाणु या अन्य कणों में आधार के रूप में स्थित होतीं हैं ये इनसे बाहर नहीं निकल सकतीं, इसी प्रकार मृत शरीर में जो आत्माएं होती हैं वे भी किसी न किसी तत्व के कण का हिस्सा होतीं हैं एवं उससे बाहर कहीं नहीं जा सकतीं। तत्व के कणों में स्थित आत्माएं हवा भोजन एवं पानी के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचती रहती हैं एवं पाचन के माध्यम से द्रव्य के सूक्ष्म रूपों में विभक्त होकर स्वतंत्र अवश्था में भी पहुंच जातीं है।

Scientific basis of spirituality-4


Soul

                                 Soul is the first smallest particle of matter, It is located in the form of halo around God. We can say it is the smallest micro form of the matter,  it is a  wave form of matter. Its size is variable, it can add  all the properties of matter, and can even leave. When it leaves the properties,  changes as the abstract form God and when it adds the properties, does the creation of the world. Its size varies due to Leave & take the properties,  after change as abstract God (due to leaving all the properties), it never regenerate. In the spiritual language we  says it salvation,  but soul can not do it him self, for this it's depend on the human mind. Soul reacts against action and  result has been received from reaction. Root or conscious whatever is in the universe,  the basis of all is soul. Soul is present as the  basis within the each smallest particles  of the atom. If we assume the atom a pitcher full of water,  then the size of the soul would  be equivalent to a drop. Atom size is so small that on the tip of a needle, thousands atoms can be kept. Atom is The smallest particle of an element,  when the soul is the smallest micro form of matter. In the universe nothing is subtle from soul, after this only abstract God is there.

                                           The soul is immortal, until is our solar system, when  solar system will end, then soul will be end. Soul from one  solar system, can not go in other solar system. Until soul is alive, until then, it will always linger here and there in the solar system. In  whole life, soul linger on  from one element to other element  &  from  one creature to other creature, and every where it should have to  react against every action, so it does not get rest, up to eternity. Kept in mind this fact, God has provided facility of salvation for the soul, and this  can only get through human. Response of the soul is definite there is no exception. If we hit to stone  stone will broken except this  other  action would not be there. The soul is responsible for all physical, chemical, biological and emotional reactions, action always starts from the outer casing , then soul will react. Similarly, based on feedback of, the work done by human, mood of eating & drinking and his ideas in the body, he indulges pleasure & calamity in his life and  built his future.
                                                In the religious scriptures the properties  of matter, has been named  goddess, god  & demon. The faulty properties are called monster & virtue properties are goddess & god. As per religious text it is reported to be 3.3 million  properties of matter these all properties are located in Spirit as the seeds, like that the giant tree is located Just in a little seed similarly properties are located in the spirit, and according to circumstances similar properties becomes active. If a seed putting down  in the ground & give him manure water etc it grows as a that type tree. Man  by his organs of perception whatsoever sees listens and understands he  becomes like that. What kind of work man does, in him  he gets the growth of similar  Properties, Just like  a tree grows by giving manure water. To achieve efficiency in any work constant practice is necessary. If we burn the seeds of the tree then it no matter how much water manure  supplied to,  this  Can not generate tree. Similarly if the properties in spirit is to be destroyed, then it is no matter how much  human resources are available he would be no desire to consume. This is the original purpose of religion or spirituality. How these properties should be deleted will learn in the second part. By which process the  tree Can be generated from a seed like that anyone  root or conscious can be generates from the soul because  soul is the original seed of all. But the knowledge of the scientific process and create necessary conditions must be. Science  still could not reach the soul. After the development of nanotechnology, science will probably reach the soul. Science is being attempt to generate cloned animals which is likely to be distorted. In Ramayana, Mahabharata and  Gita, instances  are found to create human  by the different artificial methods, Rama and Sita are the main examples of this. Ram was born from the womb of the mother by artificial methods, while Sita was born outside the mother's uterus.
                                                 In Spirit three properties are main, first,  related to generation, means "Brahma" second related to abide means "Vishnu" & third related to end (destroy) means "Shiv". These three properties are always present in soul, wherever it, because everything arising in the universe,  goes through these three stages. Each of these, millions  branches are there. First God  has born  "Brahma" with the property of generation Then Brahma is generated their negative power is said "Savitri"  in the religious texts she is known as Brahma's daughter and wife. Daughter  is so called, because 'Bhahma'  had  generate it him self, Wife is so called, because by their fertilization  he had generate "Vishnu" "Shiva" & their  negative powers 'Lakshmi' 'Parvati', and other million properties (goddess god)  & with the help of these created the world. In ancient  time by sages, The name given to the properties of matter & created the images based on the description of properties & mechanism of the human body, They often  are  resemble the shape of human beings, it letter come to be understood that  the goddess god  such as of human beings shape  are an invisible creature who are not visible to us but it is a totally wrong concept. We are who see images  of goddess & god these are made on the basis of description of properties  & mechanism of  our bodies,  neither  that no body like such images is not there, nor  there are any parents of these. Maharishi Mahesh Yogi has described  entire scientific description of the goddess & god. "Ram and Krishna" are also worshiped as gods in the Hindu religion But they were born as human beings so they are history man and religion founder. "Brahma Vishnu and Shiva", including millions  goddess gods and demons,  are the names of specific properties. It has written earlier  goddess, god & demons are located in the Spirit and the Spirit  is in our bodies, so all the gods and demons are also located in our body, emerged as the divinity or the demonic qualities are in man he treats same like that generosity or evil. Therefore, the arrangement for worship of goddess god is  in religious texts. We pray to which  goddess & god, qualities  related to those goddess  god begins to grow in our body only physical worship is of no importance, but we must know the correct method only physical worship is of no importance because this is a mental process. Since the method of worship, is associated, with each of devotion aim of worship is to make the environment suitable for meditation. To get the demonic forces of demons the provision  of meditation and worship is there. For devotion of any goddess & god, must have the knowledge of  correct method of meditation, worship and  description  of the properties, of that goddess & god ,otherwise without knowledge of any worship  is generate Phrenetic stage & fanaticism, a qualified Preceptor is must for this.
                           In spirituality the soul is called  life and knowledge, soul is the unit of the life of all root and conscious elements In the  spiritual  language  life  is  called,  which generates (birth) and ends (death), except God There is no such object in the universe, which does not generate or end since life exists everywhere in the universe, because the unit of life is soul  and it is present in every smallest particles. Science  probably assume life  to only creatures competent for automation that's just wrong, because creatures are also made of these, small root  particles of matter which is the atoms. Man should always remember that matter (soul) had create human, human not to matter; knowledge is in  the matter means (soul) , not in a man. Man is the media to describe this knowledge. There is a perfect way to achieve this, knowledge situated in spirit.  In the second part this will be described. Even after the  end of human and solar system,  knowledge never ends because the generation of knowledge is assumed from God.

                                     In spirituality the soul is called  life and knowledge Through the vital force by automatic action does progeny growth are called creatures it includes all human, animal  & insect world. Flora world also does progeny growth  through the vital force by automatic action but in the mechanism of fauna and flora is a little difference. In root material, organs of perception, organ of action,  mind, vital force etc is not there, when in  the creatures have all these  things. Vital force is the energy form of matter latter on we will learn about this. Conscious are  able to automation when root elements are not able to do so, they  require energy for actions. Solid material after change in the energy and wave form becomes conscious both they are able to do any actions.
                                   The body of human beings, including all creatures are composed of  five forms of matter solid, liquid, gas, energy and the wave. In the religious text  these are called "Panch Tatwa" ( five elements) ie earth, water, air, fire and sky (space). These five forms are present in  creatures in active conditions with their lowest and highest levels. Root elements are found in any one form that is solid, liquid or gas, only in one level & is in idle condition. We can say that  actions is very slow in these elements after hundreds of years,  some change appears. Everything needs energy to the action  the energy in creatures  we call vital force("Pran"). In our body God is abstract (formless) soul and mind is in a wave form, vital force is energy form, oxygen and other gases  in gas form, serum, water and blood in liquid form, meat, bone, etc. are in solid form. Like This  our body is made up of five forms of matter until while vital force("Pran") is  in our bodies until then these five  forms remains active.
                                     The atom of any element is a group of several properties these  property are emitted from, thousands spirits, located in atoms by enabled and disabled these properties, an atom of one element can be change in other element without nuclear fusion and fission, our ancestors were knew this mechanism. Till now  Sciences has investigated, near about 101 elements on earth, all these elements are found in our earth and atmosphere. These elements  buried in the womb of the earth, the earth keeps sending  these elements through the flora above the earth, that reaches in our bodies, through  fruits, flowers, food, water, air and drugs.  Our body is made   from the combination of atoms of all elements, so every particle of our body is the part of earth, and vital force is the part of sun. Therefore, earth is the main mother of all, and sun is the main  father. Man should always remember that to live, the earth makes available us all the necessary things such as food, air, water including physical facilities. Therefore, man's first duty is to protect earth.
                                        All elements in our body are in balanced condition we get them through the air, water and food. These elements within the body through the digestive system, as changing in liquid ,air, energy  and wave form , and influence our mind intellect, & health. it's excess or decrease, cause immediate impact on our health due to it's decrease or excess, we becomes to be ill,. by taking these elements in the form of drugs we becomes healthy. Each element has an impact on different parts of the body such as gold affects our intellect. due to shortage of this, man becomes victim of despair or depression This disease occurs due to the fear and frustration. In humans the maximum fear is of death. But the frustration is so  increased that death fear becomes low, then man  commit suicide. if  the disease is treated by any method allopathy, homeopathy and Ayurveda the  drug used would be made of gold. In all three systems the drug will be same, but the drug manufacturing method & method of action in the body will be different Similarly each element is  affect different parts of our body. Changes in normal mechanisms of the body we says chronic disease. it can not be cure by medicines.
                                        Excessive indulgence in the world, desire, not to be satisfied with your Position, passion hatred, anxiety, fear, are main  caused for  incurable diseases. Science has considered to  food and lifestyle the main causes of chronic diseases, food and lifestyle  not main issue, the issue is  of man's perverts mentality & his  ideas, because modern life style and method of education has been deform the man's mentality. Excess indulgence  of the man in the world, will sooner he  the victim of incurable diseases, whether the mood of eating & drinking be virtuous and people to be not bad habits. The person who is not indulgence in the world whether their lifestyle and mood of eating drinking is not virtuous, they will not suffer from chronic disease. Indulgence to the world   means that, instead of nature, flora fauna, and human relations, to give more importance for Selfishness, physical facility,  money and property.
                                      Through various channels our body takes five forms of matter such as Solids through food, liquid form through drinks and water, the  air  through  breath, energy through the sun, and knowledge  as the wave form. Knowledge or the wave form is most important out of these,  because only it gives Permanent impacts on the life of man. He acts like that  as he gets the knowledge. To receive the first four forms in our body have three organs ie  mouth, nose and skin. But to receive wave form or knowledge  we have in our body are five organs  says organs of perception.
                                                               God have been divided 3.3 million properties into 84 lakh species. According to which God has generated from one chromosome to 3.3 million chromosome creatures. Man is a creature with the entire (3.3 million) chromosome, generated in the last. Each creature is the closest species to man's closest species is monkey. But  monkey  by development can not  be human. How much  chromosome is in the creature, they can generate the same chromosome, child, not more or less chromosome. We can say definitely that after the monkey on earth man has generated. Other than humans all creatures generate by God, can only do the works fixed by God when man is free to do all works. Except human in all species work is main when in human knowledge is main. Except human to maintain the balance of nature  God has distributed  the fixed work to each creature, and the work of human is to protect all by knowledge.
                                                                 The distance from the center of the Earth  up to  center of sun is divided into fourteen parts we says it region,  in it  three  are main.
1. Mortal world 2. Paradise 3. Hell
                                         As far as from the earth surface , oxygen is there,  that distance is called mortal world, after this distance up to center of sun is called paradise , distance from the surface of earth up to center of earth  is called hell, there are many levels of paradise & hell.
                                        According to religious texts  the volume of the soul in our body is equal to size of thumb, compare to our body.  In our body, soul at the center of the each minutest particles of atom is present as the basis, means it has spread throughout the body, up to Some distance outside the body it is in the halo form. Few independent souls with vital force at the time of death goes out from the body These souls are reborn somewhere other. soul is also there in dead body But it is just like as in a root element. The souls  having same property are always in groups. At time of death where soul will go out of body, it depends on their density (weight) is how much less or more. Low-density souls always  leads to above (heaven), and more density souls always goes down in Hell (like that  light gas goes towards up side  and heavy gas towards down). Density of soul in the human body to be more or less depending on, that his Indulgence in the world was how much and with how much desires, he dead. Those souls are wandering in mortal world would have a second birth soul above or below the mortal world  until then can not take the second birth, until it do not come to mortal world by decreasing or increasing his Density. The souls in a mortal world  in which species  will go, it depends on the works done in human life.
                                            It may be questioned when the soul is located in each micro particles, in the mortal world or any other  place, there is  no shortage of soul, then why only  souls of  creature are take birth, why not any other soul. Since at the time of death, the souls after leaving the body, does the variance in only the independent condition, rest souls are present  as the basis of any atom or other element they can not come out from this. Similarly, the souls in the dead bodies are also part of the some elements and can not come out from this. The souls  present in the particles of elements are reach in our bodies through air, food and water, and through digestion soul after dividing in subtle forms of matter reaches in independent form.

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -5


मन

                              मन मनुष्य के शरीर का सबसे महत्वपूर्ण भाग है इसे तीसरी आंख या छठी इंद्रिय भी कहते हैं, इसे अग्रेंजी में माइंड कहते हैं। मन ही मनुष्य के शरीर का संपूर्ण बौद्धिक संचालन करता है अर्थात यह शरीर को चलाने वाला ड्राइवर है। यह द्रव्य का तरंग रूप है और यह आत्मा के साथ गुथा हुआ रहता है एवं सारे शरीर में व्याप्त है। इसे हम शरीर की संचार प्रणाली कह सकते हैं यह आत्मा से संपर्क बनाए हुए ब्रह्मांड में कहीं भी जाने में सक्षम है इसकी गति असीमित है यह प्रकाश की गति से कई गुना तेज गति से चल सकता है यह एक सेकिंड में ब्रह्मांड के किसी भी कोने में पहुंच सकता है यदि हम विज्ञान की भाषा में कहें तो इसका तरंगदैर्ध्य अनंत है। यक्ष प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठर ने मन को सबसे तेज चलने वाला बताया था। मन के तीन भाग होते हैं।
1.चित्त, 2.बुद्धि 3.अहंकार।
                   चित्त का काम है जानना या ज्ञान प्राप्त करना, बुद्धि का काम है निर्णय करना एवं अहंकार का काम है गलत निर्णय करना या निर्णय को बदलने का प्रयास  करना। मन का अस्तित्व तब तक रहता है जब तक प्राणी जीवित है मृत्यु के बाद इसका कोई अस्तित्व नहीं रहता न ही यह कहीं स्वतंत्र अवश्था में रह सकता है क्योंकि मन एक गतिशील संचार प्रणाली का नाम है जो कि सिर्फ जीवित प्राणियों में ही रहती है। जब मन काम करना बंद कर देता है तब मनुष्य कोमा की स्थिति में चला जाता है।
                   जब हमें कोई कार्य करना होता है तब सबसे पहिले हमारे मन में उस कार्य को करने का विचार आता है जैसे हमें हाथ उपर उठाना है तब सबसे पहिले हमारे मन में हाथ उठाने का विचार आएगा इसके बाद बुद्धि निर्णय करेगी कि हाथ उठाना है या नहीं, हाथ उठाने का निर्णय कर लेने के बाद बुद्धि प्राण अर्थात उर्जा रूप को उत्तेजित करेगी उर्जा नर्व के माध्यम से हाथ उठाने के लिए आवश्यक उर्जा के साथ मस्तिष्क तक संदेश पहुंचाएगी संदेश मिलते ही मस्तिष्क हाथ उठाने के लिए आवश्यक रसायन तैयार करेगा जो हाथ की मांसपेशियों में आवश्यक खिंचाव उतपन्न कर हाथ को ऊपर उठा देंगे परंतु इतनी लम्बी प्रक्रिया सेकिंड के दसवें भाग से भी कम समय में हो जाती है। हमारे द्वारा किए जाने वाले छोटे से छोटे शारीरिक या मानसिक कार्य करने के लिए हमेशा यही प्रक्रिया दुहराई जाती है चाहे  कार्य ज्ञानेद्रियों द्वारा किया जाना हो या कर्मेद्रियों द्वारा किया जाना हो, कार्य हो जाने का संदेश भी वापिस मन तक पहुंचता है तब मन फिर हाथ को सामान्य स्थिति में लाने के लिए संदेश भेजता है। उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि हमारे शरीर में क्रियाएं कितनी तेजी से होतीं हैं। शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं का हमें कोई पता ही नहीं  लगता। अर्थात शरीर में होने वाली स्थाई सामान्य क्रियाएं जो शरीर को क्रियाशील रखने के लिए आवश्यक हैं, जो कि आजीवन बिना रुके तेजी से शरीर में चलती रहतीं हैं, इनका हमें कोई पता नहीं चलता क्योंकि इन क्रियाओं का संचालन प्राण करता है। इसके अलावा बौद्धिक क्रियाओं का संचालन मन करता है, सामान्य क्रियाओं के अलावा बौद्धिक रूप से शरीर में होने वाली छोटी से छोटी हलचल का संदेश मन तक पहुंचता है यदि मन के रास्ते में कोई रुकावट पैदा हो जाय तो हमें शरीर में होने वाली किसी भी हलचल दर्द आदि का पता न चलेगा, अर्थात हम बेहोशी की अवश्था में पहुंच जाऐंगे। इसके रास्ते में रूकावट पैदा कर डाक्टर बड़े बड़े आपरेशन कर देते हैं। इस प्रकार मन हमारे  शरीर में ज्ञानेद्रियों कर्मेन्द्रियों सहित शरीर का बौद्धिक संचालन करता है।
                   जब बुद्धि के पास निर्णय करने के लिए विकल्प ज्यादा होते हैं तब अहंकार अपना काम करने लगता है इसे भी हम एक उदाहरण से समझते हैं मानलो दो अलग अलग व्यक्तियों को घर से रेलवे स्टेशन जाना है जो कि दस किलोमीटर दूर है एक व्यक्ति के पास रेलवे स्टेशन जाने के कई विकल्प मौजूद हैं जैसे पैदल जाना साइकिल, बस  आटो रिक्शा  टेक्सी आदि परंतु दूसरे व्यक्ति के पास  पैदल जाने के अलावा कोई विकल्प नही है तब दूसरे व्यक्ति में अहंकार कोई काम नहीं करेगा और वह तुरंत निर्णय लेकर पैदल चल देगा। परंतु पहला व्यक्ति जिसके पास कई विकल्प हैं निर्णय लेने में कुछ देर लगाएगा इसके अलावा वह तीन प्रकार से निर्णय ले सकता है पहला अपनी सामर्थ के अनुसार दूसरा सामर्थ से कम तीसरा सामर्थ से अधिक यदि वह सामर्थ सें अधिक खर्च कर जाने का निर्णय लेता है तब उसके मन में तनाव भी उतपन्न होगा। इस प्रकार मनुष्य के मन में बुद्धि और अहंकार का टकराव हमेशा होता रहता है जो कि तनाव एवं तनाव से उतपन्न होने वाली बीमारियों का कारण बनता है। बुद्धि और अहंकार हमेशा एक दूसरे को दबाने की कोशिश करते रहते हैं। गरीब एवं श्रमजीवी लोगों में अहंकार बहुत कम होता है परंतु बुद्धिजीवी एवं उच्चवर्ग में अहंकार चरम पर होता है एवं तनाव से संबंधित बीमारियां भी इन्हीं दो वर्गों में ज्यादा होतीं हैं इसी कारण आज दुनिया में जो भी निर्णय लिए जाते हैं वह प्रकृति एवं जीवन के हित में नहीं होते क्योंकि निर्णय लेने वाले व्यक्तियों में अहंकार चरम पर होता हैं। आध्यात्म के माध्यम से हम सीख सकते हैं कि निर्णय लेने के कई विकल्प मौजूद होते हुए भी अहंकार को अपना काम करने से कैसे रोका जा सकता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताएंगे।
                       हमारे मन में जो भी विचार उठते हैं उनका भाव हमेशा हमारे चेहरे एवं आखों पर पर प्रगट होने लगता है हम किसी भी व्यक्ति के चेहरे को देखकर तुरंत बता देते हैं कि अमुक व्यक्ति प्रसन्न है, उदास है, चिंतित है, तनाव ग्रस्त है या क्रोधित है आदि, अर्थात चेहरे को देखकर मन में उतपन्न विचारों को पढ़ा जा सकता है। हम अभी उसी बदलाव को देख पाते हैं जो चेहरे पर स्पष्ट रूप से प्रगट हो जाता है सूक्ष्म रूप से प्रगट होने वाले बदलाव को हम नहीं देख सकते। पुराने समय में हमारे ऋषि मुनि इस विधि को जानते थे वे मनुष्य के अलावा चेहरे को देखकर जानवरों के विचारों को भी पढ़ लेते थे। जिस प्रकार विज्ञान ने आज कमप्यूटर की मशीनी भाषा को आम भाषा में बदल लिया है इसी प्रकार मन में उतपन्न विचारों को आम भाषा में बदला जा सकता है इससे जानवरों के विचारों को भी पढ़ा जा सकेगा, इसके लिए विज्ञान को अभी समय लगेगा क्योंकि अभी विज्ञान मन तक नहीं पहुंचा है। विज्ञान ने अभी झूठ पकड़ने वाली मशीन एवं नार्को टेस्ट आदि विधियां विकसित की हैं परंतु इन विधियों द्वारा मस्तिष्क में उतपन्न रसायनों एवं तरंगों का विश्लेषण कर परिणाम निकाले जाते हैं जो पूर्णतः विश्वासनीय नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक स्थिति अलग होती है यदि कोई व्यक्ति मन को नियंत्रित करना जानता है या अनजाने ही उसका मन नियंत्रित हो जाता है तब इन विधियों द्वारा गलत परिणाम मिल सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति सन्यासी है तब उस पर किए गए टेस्ट भी गलत परिणम दे सकते हैं। यहां सन्यासी का मतलब घर द्वार छोड़कर चले जाने वाले  आधुनिक सन्यासियों से नहीं है, जैसा कि उपर लिखा जा चुका है कि हमारे मन में उतपन्न विचारों का भाव हमारे चेहरे पर प्रगट होता रहता है, परंतु किसी व्यक्ति में यदि किसी भी अच्छी या बुरी परस्थिति में या सुख दुख में चेहरे पर कोई भाव प्रगट नहीं होते अर्थात किसी भी परस्थिति का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तब उसे सन्यासी कहा जाता है आध्यात्म के अनुसार सन्यासी की यही परिभाषा है।  ( कोमा को हिन्दी में सन्यास कहते हैं सन्यासी की उतपत्ति इसी सन्यास शब्द से हुई है। ) एक गृहस्थ व्यक्ति सन्यासी हो सकता है, हमारे जितने भी प्रसिद्ध सन्यासी ऋषि मुनि एवं धर्म संस्थापक हुए हैं उनमें ज्यादातर गृहस्थ थे। हमारे जितने भी देवता हैं वे कोई भी बिना पत्नि के नहीं हैं। ईश्वर को पाने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग करना बिलकुल भी जरूरी नहीं है। भौतिक रूप से सन्यास धारण करने का कोई महत्व नहीं है ईश्वर को पाने के लिए मानसिक रूप से सन्यासी बनना होता है क्योंकि धर्म पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है। यह कार्य ग्रहस्थ जीवन में भी किया जा सकता है, दूसरे भाग में इसे और स्पष्ट करेंगे। श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां थीं फिर भी वे ब्रह्मचारी एवं सन्यासी थे।
                     द्रव्य के पांच रूपों ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ) का ज्ञान प्राप्त करने के लिए  हमारे शरीर में पांच ज्ञानेद्रियां होती हैं। इन पांच रूपों के पांच अलग अलग गुण होते हैं।
1.पृथ्वी (ठोस) का गुण गंध,
2.जल (द्रव) का गुण रस (स्वाद),
3.वायु का गुण स्पर्श,
4.अग्नि का गुण रूप (दृश्य) एवं
5.आकाश का गुण शब्द (कम्पन)
                    उपरोक्त पांच रूपों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में निम्न पांच ज्ञानेन्द्रियां होतीं हैं।

1.गंध का ज्ञान प्राप्त करने के लिए नासिका
2.स्वाद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिव्हा
3.स्पर्श का ज्ञान प्राप्त करने के लिए त्वचा
4.रूप का ज्ञान प्राप्त करने लिए आंख
5.शब्द का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कान  
                 नासिका, जिव्हा, त्वचा, आंख और कान ये पांचों ज्ञानेन्द्रियां हमारे शरीर के उपरी भाग के अलावा मन में भी सूक्ष्म रूप से स्थित होती हैं इसलिए मन को छटी इंन्द्रिय या तीसरी आंख कहा जाता है। यदि शरीर मे स्थित कोई ज्ञानेन्द्रिय खराब है तब भी मनुष्य उस ज्ञानेन्द्रिय से संबंधित ज्ञान मानसिक रूप से प्राप्त कर सकता है। क्योंकि ज्ञान प्राप्त करना मन का काम है। सूरदास जन्म से अंधे थे परंतु उन्होंने सूरसागर नामक विशाल ग्रंथ की रचना की इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण से संबंधित जिन  दृश्यों का चित्रण किया गया वैसा चित्रण आज का आंख वाला भी नहीं कर सकता। यदि मन की कार्यप्रणाली में कोई बाधा आ जाय या मन काम करना बंद कर दे तब मनुष्य मानसिक या शारीरिक कोई भी कार्य नहीं कर सकता एवं कोमा की स्थिति में चला जाता है भले ही उसकी शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं सही हों।
                   उपरोक्त विवरण के अनुसार हमारे शरीर में नाक जिव्हा त्वचा आंख और कान पांच ज्ञानेन्द्रियां होती है इनमें स्पर्श इंद्रिय सबसे महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इसकी सहायता से ही मन सहित बाकी चार ज्ञानेन्द्रियां अपना काम करतीं हैं। यहां त्वचा का मतलब सिर्फ शरीर की उपरी त्वचा से नहीं है हमारे शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण का उपरी भाग स्पर्श इंद्रिय  का काम करता है अर्थात यह हमारे संपूर्ण शरीर के अंदर एवं बाहर व्याप्त है यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे शरीर के भीतरी भाग में होने वाले किसी भी दर्द या हलचल का हमें कोई पता नहीं चलता।
                   जब गंध युक्त हवा के कण हमारी ध्राण इंन्द्रिय को स्पर्श करते हैं तब हमें गंध का ज्ञान होता है, जब कोई खाने पीने की वस्तु हमारी जिव्हा का स्पर्श करती है तब हमें स्वाद का ज्ञान होता है जब कोई वस्तु हमारी  त्वचा का स्पर्श करती है तब हमें स्पर्श का ज्ञान होता है, जब कोई प्रकाश की किरण हमारी आंख के रेटीना को स्पर्श करती है तब हमें दृश्य दिखाई देता है, और जब कोई ध्वनि तरंग हमारे कान के परदे को स्पर्श करती है तब हमें आवाज का ज्ञान होता है। इस प्रकार सभी इंन्द्रियों को काम करने के लिए स्पर्श इंन्द्रिय ही सक्रिय करती है। हमारी स्पर्श इंन्द्रिय को शून्य कर डाक्टर आपरेशन कर देते है, इसे शून्य कर देने से हमें कोई दर्द महसूस नहीं होता। शरीर के किसी भाग को शून्य कर देने से उस भाग की स्पर्श इंन्द्रिय काम करना बंद कर देती है, बेहोशी की हालत में मन अस्थाई तौर से काम करना बंद कर देता है एवं कोमा की स्थिति में मन स्थाई तौर पर काम करना बंद कर देता है।
                      जब हम सोते हैं तो हमारे शरीर की स्पर्श इंन्दिय को छोड़कर शरीर में स्थित बाकी ज्ञानेन्द्रियां सो जातीं हैं सोते समय हम बिस्तर के एवं आस पास के शोरगुल के स्पर्श को आत्मसात करके सो जाते हैं सोते समय इससे तीव्र या अलग कोई स्पर्श हमारे शरीर में होता है तो हमारी नींद खुल जाती है या कोई तेज आवाज जब हमारे कान के परदे को स्पर्श करती है तब हमारी नींद खुल जाती है हमारी नींद स्पर्श इन्द्रिय की सक्रियता के कारण खुलती है न कि आवाज से, आवाज नींद खुलने के बाद सुनाई देती है। जब हमारे शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां सो जातीं हैं एवं हमारे मन में विचार आना बंद हो जाते हैं और मन स्वतंत्र हो जाता है तब यह अपनी इच्छा से इधर उधर घूमने चल देता है और हम स्वप्न देखने लगते हैं क्योंकि हमारे सोने के बाद बहुत देर बाद तक मन मे स्थित ज्ञानेन्द्रियां जागती रहती हैं इसलिए मन जहां जाता है वह दृश्य हम देखने लगते है। कभी कभी मन सोते समय भी स्वप्न में देखे गए दृश्यों के आधार पर मस्तिष्क को आदेश देने लगता है तब सोते समय हमारा शरीर भी भौतिक रूप से क्रिया करने लगता है नींद में चलना बोलना और स्वप्नदोष आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। गहरी नींद में स्वप्न नहीं दिखते  क्योंकि गहरी नींद में मन एवं मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियां भी आराम करने लगतीं है। गहरी नींद कितनी देर बाद आती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह व्यक्ति कितना स्वस्थ  चिंतित या निश्चिंत है स्वस्थ एवं निश्चिंत व्यक्ति को गहरी नींद जल्दी आ जाती है। इसी प्रकार हमारे मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियां नींद खुलने के लगभग आधा घंटे पहिले जाग जातीं है इसी कारण स्वप्न अक्सर नींद लगने के थोड़ी देर बाद तक या नींद खुलने के कुछ देर पहिले आते हैं। प्रकृति में तीन गुण होते हैं।
1. सत 2. रज 3. तम।
                      सत का मतलब है ज्ञान, रज का मतलब क्रियाशीलता एवं तम का मतलब अज्ञान होता है। ब्रह्म मुहूर्त एवं सत के प्रभाव में देखे गए सपने अक्सर सत्य होते हैं, तम के प्रभाव में देखे गए स्वप्न असत्य होते हैं, सोते समय रज का प्रभाव नहीं रहता। मनुष्य की तुलना मे अलग अलग प्राणियों में कोई ज्ञानेन्द्रिय कम तो कोई अधिक सक्रिय होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति में भी ज्ञानेन्द्रियों की सक्रियता अलग अलग होती है इसलिए सभी की बुद्धि या ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता एक जैसी नहीं होती। सभी प्राणियों में पांचों ज्ञानेन्द्रियां होतीं हैं इनसे संवंधित ज्ञान को ग्रहण करना एवं एक दूसरे में ज्ञान का आदान प्रदान करना सभी प्राणी जानते हैं।
                     विज्ञान मस्तिष्क को शरीर का संचालन करने वाला प्रमुख अवयय मानती है परंतु बिना मन और प्राण के मस्तिष्क कुछ नहीं कर सकता प्राण के बिना मस्तिष्क की मृत्यु हो जाती है, प्राण के बिना मस्तिष्क एक सेकिंड भी जीवित नहीं रह सकता। यदि मस्तिष्क ही शरीर का संचालन करने वाला प्रमुख अवयय होता तो विज्ञान ने अब तक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली होती। मस्तिष्क एक जड़ तत्व है इसे चेतन तत्व मन और प्राण मिलकर संचालित करते हैं। हमारा मस्तिष्क सिर्फ एक रासायनिक प्रयोगशाला है और यह मन से प्राप्त निर्देशों के अनुसार ही काम करता है। हमारे मस्तिष्क की कार्य प्रणाली लगभग कमप्यूटर के सी पी यू के समान ही होती है। कमप्यूटर में पावर सिस्टम, मदखोर्ड, सी पी यू, रेम, हार्ड डिस्क एवं एक्सटरनल डिवाइस (सी डी रोम) होते है। यदि हम अपने शरीर की कमप्यूटर से तुलना करें तब हमारा शरीर  मदर वोर्ड है, प्राण पावर सिस्टम है, मस्तिष्क सी पी यू है, हमारी याददास्त रेम है एवं ज्ञानेन्द्रियां एक्सटरनल डिवाइस हैं। हमारे मस्तिष्क में हार्ड डिस्क जैसी कोई चीज नहीं होती जहां कि डाटा स्टोर कर के रखा जा सके चूंकि विज्ञान का मानना है कि हमारे मस्तिष्क में असीमित स्टोरेज क्षमता होती है यदि ऐसा होता तो हम पढ़ी सुनी या देखी हुई चीज कभी नहीं भूलते क्योंकि फिर हम किसी भी चीज को उसी तरह देख सुन  लेते जैसे कि हार्डडिस्क में रखी हुई फाइल को देख सुन लेते हैं। स्टोरेज क्षमता आत्मा में होती है न कि मस्तिष्क में, चूंकि आत्मा मस्तिष्क सहित हमारे संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। हमारी आत्मा में ब्रह्मांड की समस्त क्रिया प्रणाली एवं आदि काल से अब तक की समस्त जानकारियां बीज रूप में स्थित होतीं हैं परंतु हमारे मन की गति बाहर अर्थात संसार की ओर होने के कारण हम इन्हें नहीं जान पाते चूंकि इस जन्म में जो भी जानकारी हमारी आत्मा तक पहुंचेगी वह हमें जीवन भर याद रहेगी क्योंकि वह हमारे मन के माध्यम से आत्मा तक पहुंची है, आत्मा तक जानकारी तभी पहुंच पाती है जब उसे पूर्ण एकाग्रता के साथ ग्रहण किया जाय जो चीज पूर्ण एकाग्रता के साथ ग्रहण नहीं की जाती उसे हम कुछ समय बाद भूल जाते हैं। पिछले जन्मों की जानकारी इसलिए याद नहीं रहती क्योंकि मृत्यु के साथ मन भी नष्ट हो जाता है। इस जन्म के पहिले की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें अपनी ज्ञानेन्द्रियों को अंतरमुखी बनाना होता है अर्थात मन की गति को उल्टी दिशा में आत्मा की ओर मोड़कर मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय करना  होता है  इसका तरीका दूसरे भाग में बताऐंगे।
                       नैनो तकनीक विकसित होने के बाद हमारे शरीर में ऐसे साप्टवेयर लगाए जा सकेंगे जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों को हार्डडिस्क एवं कमप्यूटर स्क्रीन जैसी सुविधा उपलब्ध करा देंगे, परंतु इससे मनुष्य की बौदिवक एवं शारीरिक क्षमता धीरे धीरे समाप्त होती जाएगी आने वाले समय में मनुष्य कमप्यूटर पर उसी प्रकार निर्भर हो जाएगा जिस प्रकार आज बिजली टेलीफोन आदि पर निर्भर है अर्थात इसके बिना वह कुछ नहीं कर सकेगा। आगे आने वाले समय में मनुष्य हवा पानी भोजन सहित सभी कार्यो के लिए कमप्यूटर पर निर्भर हो जायगा।
                      विज्ञान अभी यह प्रमाणित नहीं कर पाया कि हमारा मन शरीर के बाहर ब्रह्मांड में कहीं भी जा सकता है जबकि धर्मिक ग्रथों में जगह जगह यह उल्लेख किया गया है। टेलीपैथी एवं सम्मोहन इसका एक अच्छा उदाहरण है इस विधि को विकसित कर लेने के बाद हम कहीं दूर बैठे व्यक्ति को कोई भी आदेश देकर काम करा सकते हैं। यदि हमारा मन शरीर के बाहर नहीं जाता होता एवं हमारे मस्तिष्क में ही पढ़ी सुनी देखी हुईं चीजें स्टोर हो जातीं होतीं तो फिर स्वप्न में हम ऐसी कोई चीज नहीं देख सकते थे जो हमने पहिले कभी न देखी हो, (या इस प्रकार कह सकते हैं कि हम स्वप्न ही नहीं देख पाते) न तो हम ऐसी कोई कल्पना कर पाते जो हमने देखी सुनी या पढ़ी न हो, न ही वैज्ञानिक कोई आविष्कार कर पाते, न ही मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर पाता। यह लेख भी पढ़ी सुनी बातों के आधार पर नहीं लिखा जा रहा है। टाइटेनिक जहाज के डूबने के पहिले उसके डूबने की अक्षरसः बिलकुल सही कहानी लिख दिया जाना इस बात को प्रमाणित करता है कि मन शरीर से बाहर कहीं भीं किसी भी आने वाले या बीते हुए समय में जा सकता है। इसे आगे सापेक्षवाद के प्रकरण में गणित के माध्यम से और स्पष्ट करेंगे।
                       हमारा मन इंटरनेट की तरह काम करता है जब हमें कोई जानकारी चाहिए होती है तब हम इंटरनेट के माध्यम से हम उस बेवसाइट पर जाते हैं एवं वहां उपलब्ध जानकारी हम अपने कमप्यूटर स्क्रीन पर देख लेते हैं परंतु हमारे शरीर में कमप्यूटर स्क्रीन जैसी कोई व्यवश्था नहीं होती हम याददास्त (मेमोरी) की सहायता से ही उसे जानने की कोशिश करते हैं। यदि हमारे मन में ताजमहल का विचार आता है तब हमारा मन वहां जाता है जहां हमने भौतिक रूप से  ताजमहल को या इसकी तस्वीर देखी थी फिर याददास्त के सहारे मन इसे देखने की कोशिश करता है याददास्त के आधार पर हम इसे कितनी बारीकी से देख सकते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि भौतिक रूप से देखते समय हमने इसे कितनी एकाग्रता से देखा था। यदि हमने कोई किताब पढ़ी है और बाद में याददास्त के माध्यम से किताब को देखे बिना उसे दुहराने की कोशिश करते हैं तब हम उसे बिलकुल वैसा ही नहीं दोहरा पाते। अलग अलग व्यक्तियों की याददास्त की क्षमता अलग अलग होती है, यह क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि किताब को पढ़ते समय वह उस पर कितना एकाग्र था, एवं उसकी ज्ञानेन्द्रियां कितनी संवेदनशील हैं यदि वह सौ प्रतिशत एकाग्र था तब याददास्त के आधार पर वह उस विषय को ज्यों का त्यों दुहरा देगा, यदि वह पढ़ते समय बिलकुल एकाग्र नहीं था तब उसे कुछ भी याद नहीं रहेगा। सौ प्रतिशत एकाग्रता का मतलब होता है कि हमारा पूरा ध्यान उसी कार्य पर हो जिसे हम कर रहे हैं जिस प्रकार कि अर्जुन को निशाना लगाते वक्त चिड़िया की आंख के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
                                              इसी प्रकार हमारे जीवन में रोज समान्य तौर पर घटित होने वाली घटनाऐं हमें याद नहीं रहतीं परंतु कुछ घटनाऐं ऐसी भी होतीं हैं जो जीवन भर कभी नहीं भूल पाते क्योंकि इन्हें हमने पूरी एकाग्रता के साथ महसूस किया होता है, यह हमारी आत्मा तक पहुंचकर उसमें स्थित हो जातीं हैं जब कोई भी कार्य पूर्ण एकाग्रता से किया जाता है तभी उसका प्रभाव आत्मा तक पहुंचता है। एक बार आत्मा तक पहुंच जाने के बाद कोई चीज भूल नहीं पाते। जब मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है तब इसे कई जन्मों तक नहीं भूलता।  जब हम ऐसी कोई चीज  को जानना चाहते हैं जो हमने पहिले कभी देखी सुनी या पढ़ी न हो तब मन को इसे खोजने में समय लगता है इसके लिए हमें लम्बे समय तक ध्यान मग्न या एकाग्र होकर गहराई में जाकर निरंतर अभ्यास के द्वारा उसे खोजना होता है तब हम उसे जान पाते हैं इसी आधार पर मनुष्य दुनियां में नई खोज या नया आविष्कार करता है। ज्ञान प्राप्त करने का ध्यान या एकाग्रता से सीधा संबंध है, ध्यान के माध्यम से ही आत्मज्ञान एवं ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया जाता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताएंगे।
                      पूरी एकाग्रता से एक लक्ष्य पर केंद्रित होने की कला को ध्यान कहते हैं। ध्यान के माध्यम से हम किसी भी स्थान से किसी भी किताब को उसी तरह पढ़ सकते हैं जिस प्रकार कि कमप्यूटर स्क्रीन पर वेव पेज को खोलकर पढ़ लेते हैं भले ही वह किताब हमने पहिले कभी न पढ़ी हो, इसके लिए हमें ध्यान को सिद्ध करके मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता को विकसित करना होता है, परंतु आज इस भौतिकवाद के युग में मनुष्य के लिए यह काम करना बहुत कठिन है, कभी अनायास ही संयोगवश हमारा मन ऐसा कर सकता है जैसा कि उपर टाइटेनिक का उदाहरण दिया गया है परंतु ऐसा दुनिया में संयोगवश कभी कभी ही होता है, ध्यान के माध्यम से मन मे स्थित ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता विकसित कर लेने के बाद मनुष्य अपनी इच्छानुसार कभी भी ऐसा कर सकता है। यह भी टेली पैथी के समान प्रक्रिया है, संजय का धृतराष्ट्र को महाभारत का आंखों देखा हाल सुनाना इसी प्रक्रिया पर आधारित है। ध्यान के माध्यम से हमारा मन ब्रह्मांड में कहीं भी जाकर भूत एवं भविष्य की कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है, इसके लिए शरीर सहित कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। मन सिर्फ ज्ञानेन्द्रियों से संबंधित ज्ञान (अर्थात गंध रस स्पर्श रूप एवं शब्द) की ही जानकारी प्राप्त कर सकता है इसमें भौतिक रूप से कोई छेड़छाड़ या पखिर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि मन के साथ कर्मेन्द्रियां नहीं होती ये हमारे शरीर में स्थित हैं जबकि ज्ञानेन्द्रियां शरीर के अलावा मन में भी स्थित होतीं हैं।
                   हमारा मन एक बाहय् संचार प्रणाली है परंतु इसके अलावा हमारे शरीर में एक आंतरिक संचार प्रणाली भी होती है अभी विज्ञान को इसकी कोई जानकारी नहीं है धार्मिक ग्रथों में इसे नारद के नाम से जाना जाता है एवं इन्हें ब्रह्मा का पुत्र कहा जाता है। हमारे शरीर में क्या क्रिया हो रही है एवं शरीर में किस प्रकार के गुणों की कमी या वृद्धि हो रही है इसकी जानकारी आत्मा में स्थित देवताओं (संबंधित गुणों) तक पहुंचाना इसका काम है इसी जानकारी के आधार पर आत्मा प्रतिक्रिया करती है जिसका परिणाम मनुष्य को कर्मफल के रूप में भुगतना होता है।
                                                  हमारे शरीर में मन और आत्मा ही दो प्रमुख तत्व हैं जो हमारे शरीर सहित हमारे रहन सहन एवं जीवन का भी संचालन करते हैं यही हमारे वंशानुगत गुण और हमारे जन्मों का भी निर्धारण करते हैं। शरीर में मन क्रिया करता है एवं इसके विपरीत आत्मा प्रतिक्रिया करती है जिससे मनुष्य कर्मफल के रूप में अपने जीवन में सुख दुख प्राप्त करता है, हमारी शारीरिक संरचना स्वास्थ एवं बुद्धि भी इसी प्रतिक्रिया पर आधारित है । मनुष्य के शरीर में आत्मा ही प्रमुख चेतन जीव है इसलिए फल भी आत्मा को ही भुगतना होता है शरीर तो नष्ट हो जाता है और इसके साथ ही मन भी नष्ट हो जाता है परंतु आत्मा को मनुष्य जीवन में मन द्वारा किए गए कर्मों का फल लम्बे समय तक भुगतना होता है। प्रतिक्रिया स्वयं आत्मा द्वारा की जाती है परंतु फिर भी यह उस परिणाम से स्वयं को नहीं बचा सकती क्योंकि जैसा उपर लिखा जा चुका है कि आत्मा की प्रतिक्रिया क्रिया के आधार पर बिलकुल निर्धारित होती है उसके विपरीत अपनी इच्छानुसार यह कुछ नहीं कर सकती। जिस प्रकार कि हाइड्रोजन के दो परमाणु एवं आक्सीजन के एक परमाणु की प्रतिक्रिया स्वरूप जल का एक अणु ही बनता है इसके सिवाय और कुछ नहीं बन सकता इसी प्रकार आत्मा की प्रतिक्रिया निश्चित होती है। शरीर की मृत्यु के साथ मन भी नष्ट हो जाने के कारण मनुष्य को पूर्व जन्म का कुछ भी याद नहीं रहता परंतु फिर भी किसी किसी को पूर्व जन्म की याद आ जाती है ऐसा कभी कभी समाचार पत्र के माध्यम से सुनने को मिल जाता है परंतु इसका कारण दूसरा होता है, आगे सापेक्षवाद के प्रकरण में इसे स्पष्ट करेंगे।  जब विज्ञान आत्मा तक पहुंचेगा तब यह सब विज्ञान को भी स्पष्ट हो जाएगा।
                                                  मनुष्य के अलावा अन्य किसी भी प्राणी की आत्मा को कोई कर्मफल नहीं भुगतने होते हैं क्योंकि मनुष्य के अलावा सभी प्रणियों की योनि कर्म प्रधान होती है और ये ईश्वर द्वारा निश्चित कर्म ही कर सकते हैं इसलिए इनके कोई कर्मफल नहीं बनते जबकि मनुष्य की योनि ज्ञान प्रधान है और वह कोई भी अच्छे बुरे कर्म कर सकता है, ऊपर धर्म के प्रकरण में दी गई धर्म की परिभाषा के विपरीत किए गए कर्मों को बुरे कर्म या पाप कहा जाता है। इसी के अनुसार आत्मा अन्य प्राणियों की योनि में उस प्राणी के कर्म के विपरीत मनुष्य जीवन में किए गए एक कर्मफल को नष्ट करती है। आध्यात्म के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर मनुष्य भी निष्काम कर्म कर सकता है निष्काम कर्म के कोई कर्मफल नहीं बनते जैसे कि उपर लिखा जा चुका है कि श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां होते हुए भी वे ब्रह्मचारी एवं सन्यासी थे। निष्काम कर्म करने का तरीका दूसरे भाग में बताऐंगे।
                    हमारे शरीर में मन एक बिना लगाम के घोड़े की तरह है और आत्मा इसका सवार है। साधारण अवश्था में बिना लगाम के यह अपनी इच्छा अनुसार आत्मा को इधर उधर घसीटता रहता है और आत्मा इसके द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगती रहती है। जब इसकी लगाम आत्मा के हाथ में आ जाती है तब यह सही रास्ते पर चलने लगता है। परंतु आत्मा को अपनी लगाम थमाने का काम मन को स्वयं ही करना होता है अर्थात स्वयं पर लगाम लगाकर आत्मा को थमाना होती है यह काम कोई दूसरा नहीं कर सकता यह काम सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही सम्भव हो पाता है। यह काम मनुष्य के लिए सबसे कठिन है क्योंकि वह दूसरे पर तो आसानी से शासन कर सकता है परंतु स्वयं पर शासन करना उसके लिए बहुत कठिन काम है। जब तक हम मन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर लेते तब तक धर्म या आध्यात्म के क्षेत्र में कुछ नहीं कर सकते क्योंकि भौतिक रूप से धर्म या आध्यात्म का  कोई महत्व नहीं है। मन पर नियंत्रण प्राप्त करने के तरीके को ध्यान कहते हैं, ध्यान से ही मन पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। मन के वारे में कहा गया है कि

           मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
           मन से ही तो पाइए, पराब्रह्म की प्रीत।।

                  गीता में श्रीकृष्ण के उपदेश का भाव यही है कि "मन एव मनुष्यानां कारणं बंध मोक्षः"। अर्थात मन ही मनुष्य के शरीर में बंधन एवं मोक्ष का कारण हैं। मन का ज्ञान से सीधा संबंध है अतः ज्ञान के वारे में जान लेना उचित होगा।